चौथा खंभा : संपादकीय ‘शीर्षासन’
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- अभिनव 'अभिन्न'
- May 29, 2022
- नज़रिया
![](https://abhinavchauhan.in/wp-content/uploads/2022/11/Sam-1.jpg)
पत्रकारिता दिवस पर हर साल ऐसे पत्रकारों और संपादकों को याद किया जाता है जो नज़ीर छोड़ गए हैं। संकल्प लिए जाते हैं, लेकिन इस पेशे में आ रही गिरावट का मूल्यांकन नहीं किया जाता। देश में मीडिया की भूमिका पर आए दिन सवाल खड़े किए जाते हैं। पत्रकारों को तमाम चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। वो न केवल फील्ड में जूझ रहे हैं, बल्कि संस्थानों में भी संघर्ष कर रहे हैं। इस दो तरफा संघर्ष में वह सबसे ज्यादा अपने संपादक से उम्मीद लगाते हैं। लेकिन इस संस्था में लगातार गिरावट दर्ज की जा रही है। आखिर क्यों आ रही है ये गिरावट, इसके लिए कौन है जिम्मेदार, आखिर क्यों कमज़ोर महसूस कर रहे हैं खुद को लोकतंत्र के इस चौथे खम्भे के पहरेदार…
खबर तुम क्या हो?
खबर तुम मीठी हो, खटाई हो
खबर तुम मक्खन हो मलाई हो
खबर तुम घर की जमाई हो
खबर तुम लाला की लुगाई हो
खबर तुम सपनों में नहाई हो
खबर तुम अपनों की दुहाई हो
खबर तुम अपनी नहीं पराई हो
खबर तुम सिर्फ कमाई हो
2012 में मैंने जब इन पंक्तियों को लिखा था तो मुझे सच में नहीं पता था कि इसमें दी गईं उपमाएं और रूपक इतने सच हो सकते हैं। अनुभवजन्य पंक्तियां भले ही राई बराबर ही सही, लेकिन सच तो हैं। आज की पत्रकारिता कुछ ऐसी ही है, और उसे ऐसा बनाने में जिनकी भूमिका है उनमें संपादक एक महत्वपूर्ण कड़ी है।
वर्तमान में सामने आए तमाम माध्यमों ने मीडिया का दायरा और मीडिया घरानों का दौर तो बढ़ाया है, लेकिन पत्रकारिता का कद घटाया है, और उससे भी ज्यादा कुछ घटा है तो वह है संपादक का कद। जी हां, इस आज़ाद भारत ने कुछ गुलाम संपादकों की एक फौज खड़ी की है। ऐसे संपादक जो न तो अपने मन से लिख सकते हैं, न लिखवा सकते हैं या यूं कहें कि वह स्वयं ही नहीं चाहते ऐसा करना। वो तो अपने कनिष्ठ साथियों के लिए आवाज़ भी नहीं उठा सकते। बड़े मीडिया घरानों में कार्य करने वाले संपादकों का कद क्यों घटा या घटाया गया, इस पर जितना विमर्श ज़रूरी है उससे कहीं ज्यादा ज़रूरी है इस बात का आकलन कि अपना कद घटता देख संपादकों ने खुद को ‘एडजस्ट’ कैसे किया ? एक पंक्ति में कई संपादक इसे विज्ञापनों की बढ़ती भूमिका, अखबार के खर्चे जैसे तमाम बहाने देकर अपना पल्ला झाड़ सकते हैं। हाँ, इन विषयों का भी अपना महत्व है उनकी भूमिका को घटाने में लेकिन सिर्फ इनका ही तो नहीं है। कारण और भी कई हैं। कभी संपादक के जिस आसान को अखबार का शीर्ष आसन माना जाता था, उस आसन पर बैठने वाले तमाम संपादक अब प्रबंधन के सामने ‘शीर्षासन’ करते दिखाई देते हैं। हालांकि, इस दौर में भी ऐसे इक्का-दुक्का संपादक आशा जगाते हैं जो अपने संपादकीय दायित्वों को बचाने की कोशिश में लगे हुए हैं।
आजादी के पूर्व और पश्चात के संपादकों की चर्चा करें तो तमाम नाम ऐसे आएंगे जिन्होंने इस पेशे का धर्म निभाने के लिए अपनी जान तक गंवाई है। पत्रकारिता में विचार जितना महत्वपूर्ण है, उससे कहीं ज्यादा सदाचार महत्वपूर्ण है। कोई वामपंथ की विचारधारा से प्रेरित है, कोई दक्षिण पंथ की। कोई तटस्थ भाव से पत्रकारिता करता है, कोई पूर्वाग्रह के साथ। इन सबको संतुलित करने का काम करते हैं संपादक। पत्रकार की खबर की लाइन क्या है और समाज तक पहुंचते समय उसमें क्या होना चाहिए इस सबके लिए होता है संपादक। कुछ अखबारों और संपादकों ने इस जिम्मेदारी को बखूबी निभाया है। पंडित युगुल किशोर सुकुल से शुरू हुई भारतीय संपादकों की फेहरिस्त में तमाम निर्भीक पत्रकार और संपादक शामिल हैं। सच ये है कि पहले के ये संपादक ही पत्रकार होते थे और पत्रकार ही संपादक। अब ऐसा नहीं है, अब पत्रकारों में संपादक बनते ही पत्रकारिता के गुण खत्म हो जाते हैं। महाशय कृष्ण, कुमार नरेंद्र, लाला जगतनारायण, रमेश चंद्र, यशोदानंदन अखौरी, रामशंकर अग्निहोत्री, इलाचंद्र जोशी, रामनाथ ‘सुमन’, कर्पूर चंद्र ‘कुलिश’, महावीर अधिकारी, केसी कैलाश, चंदूूलाल चंद्राकर, शिवसिंह ‘सरोज’, यादव राव देशमुख, विद्यानिवास मिश्र, राजेंद्र माथुर, नरेंद्र तिवारी, प्रभाष जोशी, कमलेश्वर ये कुछ ऐसे नाम हैं जो सदियों तक अपनी निर्भीक पत्रकारिता और उच्च संपादकीय मानकों के लिए याद किए जाएंगे।
प्रताप उर्दू, वीर अर्जुन, पंजाब केसरी सरीखे समाचार पत्रों ने पीढ़ियों तक अपनी जिम्मेदारी निभाई है। उनके संपादक ही स्वामी और स्वामी ही संपादक थे। इसलिए वह अधिक निष्पक्ष रह पाए। महाशय कृष्ण, उनके बेटे कुमार नरेंद्र और फिर उनके बेटे अनिल नरेंद्र ने पत्रकारिता के धर्म को बनाए रखा। इमरजेंसी के दौर में इस पत्र ने अनेक प्रताड़ना झेलीं। उसके बाद यह पत्र सत्ता का विरोध करने के कारण कभी पनप नहीं सका। सीधे तौर पर कहें तो इंदिरा गांधी और कांग्रेस का विरोध इस पत्र के अंत का प्रमुख कारण रहा। पंजाब केसरी के संस्थापक लाला जगतनारायण और उनके पुत्र रमेश चंद्र को पंजाब में हुए खालिस्तानी आंतकवाद की भेंट चढ़ना पड़ा। इस पत्र को भी विज्ञापनों से कोई खास सहयोग नहीं मिला और वह राष्ट्रीय पटल पर बहुत सफल नहीं हो सका। जबकि उसके संपादकीय लेखों की धार किसी भी प्रतिष्ठित समाचार पत्र से कहीं अधिक थी। अश्विनी के संपादकीय आलेख को छोड़कर फिर इस समाचार पत्र में कुछ भी उल्लेखनीय न रह पाया।
संपादक पद की गरिमा बढ़ाने वाली शख्सियतों में अव्वल नाम राजेंद्र माथुर का आएगा। मध्य प्रदेश के अग्रणी अखबार नई दुनिया से वह दिल्ली में राष्ट्रीय फलक वाले अखबार नव भारत टाइम्स के संपादक बने। उनकी प्रतिष्ठा कितनी थी उसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि नई दुनिया ने राजेंद्र माथुर को पहले पेज पर भावुक लेख लिखकर विदाई दी। राजेंद्र माथुर ने ‘प्रतिदिन’ शीर्षक से अपने संपादकीय लेखों से लुटियन दिल्ली में खास जगह बनाई। पहली बार हिंदी अखबार के किसी संपादक के लेखों को सत्ता शीर्ष पर बैठे लोगों ने गंभीरता से लिया। राजेंद्र माथुर ने अपने अगाध स्वाध्याय से व्यापक राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय दृष्टि विकसित की। यही वजह है कि उन्हें पत्रकारिता का एक विद्यालय कहा गया।
निर्भीक, संतुलित और राष्ट्रवादी संपादकों में विद्यानिवास मिश्र को भी आपको याद करना चाहिए। उन्होंने इमरजेंसी से लेकर उसके बाद तक के दौर में जिस पत्रकारिता का परिचय दिया वह प्रशंसनीय है। इसी कड़ी में कमलेश्वर और प्रभाष जोशी सरीखे संपादकों का नाम लिया जाना जरूरी है। लेकिन वह विचारधारा के प्रति भी काफी प्रतिबद्ध थे, इस सच को भी नहीं नकारना चाहिए। विद्यानिवास जी जहां राष्ट्रवादी मूल्यों को तरजीह देते थे। कमलेश्वर और प्रभाष जोशी ने पंथ निरपेक्षता पर जोर दिया। इंदिरा गांधी के दौर में भारत पर सोवियत संघ रूस का अधिक प्रभाव था, लिहाजा वाम विचारधारा के अधिक करीबी होने के कारण वह अधिक प्रसिद्ध रहे। बतौर संपादक पत्रकारों को तराशने में उनके योगदान को याद किया जाना अनिवार्य हो जाता है। समाचार पत्र में उनकी भूमिका हर स्थल पर दिखाई देती थी। प्रभाष जी तो जनसत्ता के पाठकों के पत्र कॉलम में अपने लेख के विरोध में मिले पत्र को भी छापने से गुरेज नहीं करते थे। इसके बाद भी उन्हें ‘बोल्ड’ संपादक कहना थोड़ा मुश्किल है, क्योंकि वह उस समय की धारा को जानते थे और उसके साथ ही चलते थे। पत्रकारिता के गलियारों में उनकी शख्सियत की लोचदार कहानियां कम चर्चित नहीं हैं। इनके बरक्स लाला जगतनारायण, रमेश चंद्र, कुमार नरेंद्र, विद्यानिवास मिश्र, राजेंद्र माथुर सरीखे संपादक धारा के विपरीत चलने और किसी भी सूरत में मूल्यों से समझौता न करने के आदी थे। उस समय पत्रकारिता का बारीकी से अध्ययन कर रहे जिन लोगों से मेरी बात हुई उनमें से किसी ने नहीं बताया कि कश्मीर के पलायन या नरसंहार की निष्पक्ष रिपोर्टिंग जनसत्ता में दिखाई दी हो। यह विचारधारा का मामला हो सकता है, लेकिन संपादकीय दायित्वों में प्रभाष जोशी जैसे संपादक को हमेशा याद किया जाना चाहिए। इस क्रम में आप नई दुनिया के सम्पादक नरेंद्र तिवारी को नहीं भूल सकते जिनके दौर में ‘नई दुनिया’ ‘पत्रकारिता की पाठशाला’ बनकर उभरा। उस दौर में जहां वो दिन के दिन नहीं पहुंच पाता था वहां एक या दो दिन की देरी से भी मंगवाकर पाठक उसे पढ़ते थे। ‘रविवार’ के संपादक सुरेंद्र प्रताप सिंह, ‘स्वदेश’ के संपादक मामा माणिकचंद वाजपेयी और ‘देशबंधु’ के संपादक मायाराम सुरजन को भी उनकी मुखरता और सामाजिक प्रतिबद्धता के लिए याद किया जाना चाहिए।
मुझे एक वाकया याद आता है, बात सन 80 के दशक की है। मुरादाबाद की एक दुकान के स्वामी सिख थे, उनके गल्ले पर प्रताप उर्दू दैनिक की एक प्रति रखी थी। मेरे दादा जी वहां गए थे, उन्होंने अखबार देखकर सवाल किया कि क्या आपको उर्दू पढ़नी आती है। उन्होंने कहा, जी नहीं, लेकिन हमारे पिताजी ने कहा है कि इस अखबार ने देश को आजाद कराने में बहुत संघर्ष किया है, महाशय कृष्ण का बड़ा योगदान रहा है, उनकी निडरता से ही आज हम लोग खुली हवा में सांस ले रहे हैं, इसलिए जब तक हो ये अखबार मंगाना क्योंकि इसके अलावा उन लोगों के पास अपना घर चलाने का कोई जरिया नहीं है। ये उदाहरण काफी है ये समझने के लिए कि कभी समाचार पत्रों के प्रति पाठक कितना समर्पित होता था। तब समाचार पत्र को बेचने के लिए तीस कूपन के बदले बाल्टी फ्री देने वाली परंपरा नहीं थी। न संपादकों पर विज्ञापनदाताओं का ध्यान रखने का दबाव या स्वभाव था। अब परिस्थितियां बदल गईं हैं। अब संपादक को समाचार के अलावा सब कुछ प्राथमिकता पर ध्यान रखना पड़ता है। इनमें सर्कुलेशन से लेकर, विज्ञापन की ग्रोथ तक सब शामिल है।
इमरजेंसी के बाद पत्रकारिता का स्वभाव और कलेवर बदल गया। जो झुके नहीं उन्हें खत्म कर दिया गया। जो मीडिया संस्थान एडजस्ट होना सीख गए थे, वह हर दौर में एडजस्ट होते रहे। मीडिया घरानों के प्रिय पत्रकार संपादक बन गए और तमाम काबिल पत्रकार नौकरी छोड़कर घर बैठ गए। आज के दौर में तो पत्रकारों को फलां का चिंटू, चंगू-मंगू, चमचा, खुफिया, स्टेपनी न जाने किन-किन नामों से पुकारा जाता है। इनमें जो सही में इन तमगों के हकदार हैं उनका प्रमोशन होता रहता है, जो इस श्रेणी में नहीं आते वो सालों साल एक की पद पर बने रहते हैं। इन सबके पीछे मीडिया घराने जितने जिम्मेदार हैं, उनसे कहीं ज्यादा जिम्मेदार हैं संपादक। मालिकों तक किसी पत्रकार का सही काम और नाम पहुंचाने का जिम्मा होता है संपादक का। हां, कुछ मामलों में मीडिया घराने संपादकों के अधिकारों में हस्तक्षेप करते हैं। लेकिन तमाम मामलों में ऐसा नहीं होता। जैसे, स्थानीय समाचारों की लाइन क्या हो, किसी घटना को कवर करने के मानक क्या हों। उन्हें निष्पक्ष रखने के लिए क्या करना चाहिए। इन विषयों में कभी मालिक हस्तक्षेप नहीं करते। ये काम संपादक अपने स्तर से कर सकता है। न्यूज की हेडिंग, ‘महिला से दुष्कर्म’ होनी चाहिए या ‘दलित महिला से दुष्कर्म’ होनी चाहिए, खबर ‘मित्र ने मित्र की मदद की’, ‘व्यक्ति ने व्यक्ति की मदद की’ होनी चाहिए या ‘हिन्दू ने मुसलमान की मदद की’ या ‘मुसलमान ने हिन्दू की मदद की’ होनी चाहिए, अपराध की खबर में केवल आरोपित का नाम जाये न कि उसके मोहल्ले, पिता आदि का, ये सब स्थानीय स्तर पर संपादक स्वयं तय कर सकता है।
मैं यह नहीं कहूंगा कि हर स्तर पर संपादक पूरी तरह दोषी है। बिहारी का एक दोहा है जो यूं तो नायक-नायिका के रति भाव पर केंद्रित है, लेकिन उसमें दिए भाव मुझे हमेशा न्यूज रूम में दिखाई देते रहे हैं। संपादक की परिस्थिति और मनःस्थिति में तो वह भाव अक्सर दिखाई देते हैं।
कहत, नटत, रीझत, खिझत, मिलत, खिलत, लजियात
भरे भौन मैं करत हैं, नैननु ही सब बात
संपादक अकसर मालिकों से पत्रकारों की बात कहने की कोशिश करते हैं, मातहतों को संस्थान की रीति-नीति को प्रकट करने की कोशिश करते हैं। कई मातहतों को किसी काम के लिए मनाही करते हैं, कुछ पर रीझे रहते हैं और कुछ पर खीजे रहते हैं। किसी को देखकर अपार प्रेम उमड़ता है, खिल जाते हैं, किसी खबर के लिए उन्हें प्रबंधन और पाठकों के सामने लजियाना भी पड़ता है, लेकिन वह स्वयं को प्रकट नहीं करते। इन सबके बीच उनकी दो जिम्मेदारियां तो होती हैं, भरे भौन यानी मालिकों के साथ बैठक के दौरान मीटिंग रूम और मातहतों के साथ बातचीत में न्यूज रूम में इशारों-इशारों में बात समझने और समझाने की।
अखबारों के सामने आर्थिक चुनौतियां काफी हैं। एक पत्रकार के तौर पर हमें केवल हमारी तनख्वाह और जरूरतें दिखाई देती हैं। एक संपादक को अपने 10, 20 पत्रकारों की टीम की फिक्र करनी पड़ती है। उसे प्रबंधन और टीम में संतुलन बनाना पड़ता है। पीत पत्रकारिता के बाद आये प्रीत पत्रकारिता के दौर में तमाम चीजें बदल गई हैं। ये पत्रकारिता का प्रीति काल है जिसमे हर कोई किसी न किसी का प्रिय बनने की कोशिश में है। मैं बड़ी जिम्मेदारी से इस बात को कह रहा हूं कि अब तमाम बड़े समाचार पत्रों के स्थानीय संपादक क्लर्क बन चुके हैं। कोई बाहरी एजेंसी समाचार पत्र में किए आपके दिन भर की मेहनत की समीक्षा किसी दूसरे समाचार पत्र से करती है। फिर मालिक को एक मेल भेजती है, जिसे आगे बढ़ाया जाता है। फिर शुरू होता है अपनी-अपनी नौकरी को सुरक्षित रखने का दौर। यानी स्थानीय संपादक खबरों में मगजमारी करने की जगह ईमेल का जबाव देने में दिन निकालता है। वह विज्ञापन विभाग की सिफारिश पर आई खबरों के प्रकाशन का ध्यान रखता है, अपने करीबी की सिफारिश पर आई खबर के प्रकाशन, उसके डिस्प्ले का ध्यान रखता है। वह कुछ लोगों का फोटो छप रहा है या नहीं इसका ध्यान रखता है। बस ध्यान नहीं रखता तो प्रमुख खबरों को स्वयं पढ़कर उनकी कमियां दूर कराने का, भाषा के प्रवाह और शब्दों की शक्ति का।
पहले सभी संपादक साहित्यकार तो नहीं रहे लेकिन अधिकांश साहित्यकार संपादक रहे। जो संपादक साहित्यकार नहीं रहे उनमें स्वाध्याय की वृत्ति जरूर रही। यही वजह थी कि उनकी भाषा पर पकड़ थी। खबर में प्रयोग किए जाने वाले शब्द पाठक पर क्या असर डालेंगे इन सबका वह ख्याल रखते थे। ऐसे संपादक अब मीडिया संस्थान में नहीं दिखते, जिनके लिए तथ्य के जितना ही कथ्य और शिल्प महत्वपूर्ण होता था। अब न्यूज रूम में किसी शब्द, किसी पंक्ति पर बहस करने का अवकाश नहीं होता। अब बस एक मेल सही और गलत की आती है, जिसे पूरे संस्थान को मानना पड़ता है। यदि कोई पत्रकार उसका स्पष्टीकरण दे भी तो संपादक यह मान लेता है कि कनिष्ठ होकर वरिष्ठ की बात को काट कैसे सकता है। उसके पास ये ज्ञान कहां से आया। संपादकों के क्षरण की एक प्रमुख वजह अपनी टीम को ही न सुनना, अपने अहम को संतुष्ट करने की आदत भी है।
मैं इन मामलों में खुद को सौभाग्यशाली मानता हूं कि मेरे संपादकों ने मेरी बात से सहमति और असहमति जताने से पहले उसे सुना। सम्पादकीय पीठ के क्षरण के कई दूसरे कारण भी हैं, इनमें अपने साथियों की हिम्मत बनने और उन पर उठने वाले सवालों का जवाब देने के बजाय उन्हीं के पर कतरने की कोशिश ने भी उनके सम्मान में कटौती करवाई है। बदलते दौर में संपादक की भूमिका जिस तेजी से बदली है उस तेजी से उसका तेवर भी कमजोर हुआ है। उनके सामने अपनी नौकरी बचाने की, पैकेज बढ़वाने की, उपयोगी संबंध बनाने की लालसा अधिक है। इसी कारण उनकी टीम उनके एक स्थान से जाते ही उन्हें भूल जाती है। अब संपादकों को भाई साहब कहकर उनके परिवार का हिस्सा बन जाने, उनके लिए हर स्तर पर लड़ने, साथ खड़े रहने और संपादक के किसी एक्शन पर प्रबंधन और पाठकों से टकराने वाले पत्रकार नहीं रहे। उनकी जगह ‘यस सर’, पत्रकारिता ने ले ली है। जिसे हर समय बताया और रटाया जाता है, ‘बॉस इज ऑलवेज राइट।’ ऐसे में अब टीम संपादक सर को तब तक ही सिर पर चढ़ाकर रखती है, जब तक वह सिर पर बैठा होता है। एडिटर के ट्रांसफर के साथ ही उससे सारे संबंध ‘एडिट’ कर नए संपादक से संबंधों पर वक्त लगाया जाता है। लेकिन इस दौर में भी मालिकों से ज्यादा अपने पद के प्रति समर्पित संपादकों की इज्जत हर जगह बरकरार है और ऐसे ही संपादक आज के दौर में आशा को जिंदा भी रखते हैं। ऐसे ही संपादकों से देश को, पाठकों और उनकी टीम को उम्मीद है। ऐसे संपादक जो पत्रकारिता के धर्म को बखूबी निभाते हुए अंधकार में एक दीये की भांति पाठकों और अपनी टीम की आवाज बने रहते हैं और उम्मीद बंधाते हैं फैज के इस शेर को हकीकत तक पहुंचाने की –
मेरे दर्द को जो जुबाँ मिले,
मुझे मेरा नामों निशाँ मिले।
(साहित्यिक पत्रिका अविलोम के मई अंक में प्रकाशित आलेख)