सियासत और सिनेमा के ध्यान से गायब ‘ध्यानचंद’
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- अभिनव 'अभिन्न'
- August 29, 2019
- नज़रिया रंगमंच
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1936 का बर्लिन ओलंपिक, हाॅकी के मैच का हाॅफ टाइम हो चुका था और भारतीय दल महज एक गोल उस समय की सबसे मजबूत और मेजबान टीम जर्मनी पर दाग पाया था।
अभ्यास मैच में जर्मनी से 4-1 की शिकस्त खा चुका भारत इस मैच को लेकर बहुत परेशान था। जर्मनी उस पर एक गोल दाग चुका था, और उस ओलंपिक में भारत पर गोल करने वाली वो अकेली टीम थी।
टीम के कप्तान मेजर ध्यानचंद अभ्यास मैच के बाद से दबाव में थे। उन्होंने कहा कि मैं ये मैच जीवन भर नहीं भूल सकता। अंतिम मैच में हाॅफ टाइम तक एक गोल करने वाली टीम मैच खत्म होने तक 8-1 की बढ़त जर्मनी पर बना चुकी थी।
हाॅफ टाइम के बाद सेंटर फारवर्ड मेजर ध्यानचंद के पैरों में उनके जूते काट रहे थे। उन्होंने नंगे पांव मैदान पर उतरकर अगले हाॅफ टाइम में तीन गोल जर्मनी पर कर दिए और भारत ने मैच जीत लिया।
तानाशाह हिटलर उनसे इतना प्रभावित हुआ कि उन्हें जर्मनी की सेना में कर्नल की रैंक और जर्मन नागरिकता देने का प्रस्ताव मैदान पर ही दे दिया। लेकिन उन्होंने नकार दिया। इसके बाद हिटलर सहित पूरे मैदान ने मेजर को सलामी दी।
इस कहानी को न जाने कितने लोगों ने अपनी-अपनी तरह से कहा और कितनी बार याद किया। लेकिन हर बार कहानी को याद करते हुए किसी को भूला गया तो वे थे ‘द विजार्ड’ के नाम से मशहूर हाॅकी के जादूगर मेजर ध्यानचंद।
सियासत हो या सिनेमा हर कहीं मेजर ध्यानचंद नीति बनाने वालों की नीयत से गायब दिखाई दिए हैं। सियासत ने आज तक उन्हें भारत रत्न के लिए याद नहीं किया। 2014 में जब उनके चाहने वालों ने भारत रत्न के लिए आवेदन किया तो उम्मीद थी कि उन्हें भारत रत्न से सम्मानित किया जाएगा। लेकिन जनता को निराशा हाथ लगी।
सियासत ने उन्हें क्यों नज़रअंदाज़ किया मालूम नहीं। लेकिन हर छोटे-बड़े मुद्दे पर फिल्म बना देने वाला बाॅलीवुड इस सितारे को कैसे भूल गया, इसका भी कुछ पता नहीं।
हिंदी सिनेमा और हाॅकी का साथ बहुत पुराना है। आज़ादी के बाद से सिनेमा के सफ़र में कई फिल्मों के सीन में हाॅकी दिखाई दे जाता था। उस दौर की फिल्मों में युवाओं के हाथ में हाॅकी और लड़कियों के पास साइकिल आम बात थी। ये सिलसिला 90 के दशक तक की फिल्मों में रहा।
2007 में शिमित अमीन के निर्देशन में आई ‘चक दे इंडिया’ पहली फिल्म थी जो पूरी तरह से हाॅकी पर आधारित थी। क्रिकेट को अपना भगवान मान लेने वाले भारतीय युवाओं के बीच इस फिल्म की 11 लड़कियों के दल ने हाॅकी को अचानक दोबारा से लोकप्रिय कर दिया। बिंदिया नायक, प्रीती सब्बरवाल, कोमल चैटाला जैसे नाम युवाओं की ज़बान पर थे। शाहरुख खान के अभिनय से सजी इस फिल्म ने देश में खेल भावना के प्रति एक नया योगदान दिया था।
खेल भावना की बात करें तो 2001 में आयी आमिर खान की ‘लगान’ देशभक्ति और खेल दोनों के प्रति लगवा पैदा करने वाली पहली फिल्म कही जा सकती है, जिसका केंद्र पूरी तरह से खेल था। इससे पहले हालांकि 1972 में आमिर खान की ही ‘जो जीता वही सिकंदर’ खेल भावना पर आधारित थी। लेकिन उसमें खेल के अलावा भी बहुत कुछ था।
‘चक दे इंडिया’ के बाद हाॅकी को केंद्र बनाकर मुख्य धारा के सिनेमा में हाॅकी खिलाड़ी संदीप सिंह के जीवन पर बनी दिलजीत दुसांज अभिनीत बायोपिक ‘सूरमा’ (2018) और इसी साल आई ओलंपिक में भारत के पहले स्वर्ण पदक की कहानी को कहने वाली अक्षय कुमार अभिनीत ‘गोल्ड’ आई।
इसके अलावा पंजाबी भाषा के सिनेमा में हाॅकी के लिए कोई तीन फिल्म और आ चुकी हैं। जबकि खेल भावना को बढ़ावा देने वाली ‘एमएस धोनी : द अनटोल्ड स्टोरी’ (2016), फ्लाइंग सिख मिल्खा सिंह पर बनी बायोपिक ‘भाग मिल्खा भाग’ (2013), गीता और बबीता फोगाट पर बनी बायोपिक ‘दंगल’ (2016), धावक बालक बुधिया सिंह पर बनी बायोपिक ‘बुधिया सिंह : बाॅर्न टु रन’ (2016), इरफान अभिनीत धावक से बागी बने पान सिंह तोमर की बायोपिक ‘पान सिंह तोमर’ (2012), प्रियंका चोपड़ा अभिनीत बायोपिक ‘मैरी काॅम’ (2014), श्रेयस तलपड़े की ‘इक़बाल’ (2005), सलमान की ‘सुल्तान’ (2016), आर. माधवन की ‘साला खड़ूस’ (2016), ‘मुक्काबाज़’ (2018), ‘पटियाला हाउस’ (2011) और हाल की में आई कंगना रनौती की ‘पंगा’ (2020) प्रमुख हैं।
तिगमांशु धुलिया के निर्देशन में बनी ‘पान सिंह तोमर’ को खेल भावना और खिलाड़ी के जीवन में आने वाले बदलावों की पहली बायोपिक कहलाने का शर्फ़ हासिल है। इसके बाद भाग मिल्खा भाग, मैरी काॅम, दंगल, एमएस धोनी चर्चित बायोपिक हैं।
हाॅकी पर बनी ‘गोल्ड’ ऐतिहासिक घटनाओं पर आधारित है। कहानी में देशभावना, खेल की राजनीति को प्रस्तुत करने में कोई कमी नहीं रखी गई। 15 अगस्त पर इसे रिलीज़ भी किया गया। लेकिन फिर भी यह हाॅकी को लेकर वो आकर्षण पैदा नहीं कर पाई जो ‘चक दे इंडिया’ ने किया था।
बाॅलीवुड में काल्पनिक कहानियों के सशक्त पटकथा लेखन को किनारे रख कर इन दिनों बायोपिक का दौर चला दिया गया है। लेकिन कमाल की बात ये है कि 2007 से अब तक पिछले 13 साल में किसी की निगाह देश के इस सबसे चर्चित खिलाड़ी मेजर ध्यानचंद पर नहीं गई।
जिस खिलाड़ी के जन्मदिन पर देश में ‘राष्ट्रीय खेल दिवस’ मनाया जाता हो। खेल के सबसे बड़े सम्मान ‘मेजर ध्यानचंद अवार्ड’ को दिया जाता हो। जहां का सिनेमा कई गुमनाम नामों को निकालकर बायोपिक बनाकर उनकी स्वीकार्यता समाज के करा देता हो, वहां का सिनेमा एक स्वीकार्य खिलाड़ी को स्थापित करने में पीछे रह गया।
जबकि जर्मनी में बर्लिन ओलंपिक को केंद्र में रखकर बनाई गई फिल्म ‘ओलंपिया’ (1938) में ध्यानचंद के किरदार को कुछ देर के लिए ही सही, लेकिन याद रखा गया। वहीं भारत में बनी अक्षय कुमार की गोल्ड में ध्यानचंद को कहीं दिखाया भी नहीं गया। बेशक उसमें सभी नाम काल्पनिक थे, लेकिन उनका ज़िक्र किया जा सकता था।
मुमकिन है कि मेजर उस कद पर पहुंच चुके हैं जहां भारत रत्न जैसा सम्मान भी उनके कद की बराबरी न कर पा रहा हो। लेकिन फिर भी देश के सर्वोच्च सम्मान से उन्हें सम्मानित किया जाना चाहिए था। ये उनके प्रति देश के औदार्य को दर्शाता। देश के लिए राष्ट्रवाद के नए प्रतिमान गढ़ने वाली सरकार ने भी इस देशभक्त खिलाड़ी के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रदर्शित करने में अब तक कमी ही दिखाई है।
सिनेमा की इस किरदार पर अब तक निगाह क्यों नहीं गई यह सोचने का विषय है। 2020 में जब हम मेजर ध्यानचंद की 115वीं जयंती मना रहे हैं, तब हमें यह सोचना होगा कि देश के लिए तीन बार गोल्ड ला चुके और ओलपिंक में अपने 12 मैचों में 33 गोल दागने वाला ये सेंटर फारवर्ड हमारे देश की सियासत और सिनेमा के सेंटर में क्यों नहीं है?
कई सवालों और अशेष आदर और सम्मान के साथ भारत के राष्ट्रीय खेल के इस अविस्मरणीय किरदार को मेरा नमन।