स्त्री के धन्यवाद का पर्व – होली
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- अभिनव 'अभिन्न'
- March 9, 2020
- नज़रिया
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हमारा देश प्रकृति के उत्सव का देश है। ऋतुओं के आगमन, अवसान, परिवर्तन हर क्षण पर हम भारतीय उत्सव मनाते हैं। उत्सवधर्मिता हमें संस्कारों और वंशानुक्रम में मिली है। संवत्सर के प्रारम्भ से अंत तक समय-समय पर हम किसी न किसी रूप में प्रकृति के साथ उत्सव मनाते ही रहते हैं। इसी क्रम का सबसे महत्पूर्ण और सर्वप्रिय उत्सव है होलिकोत्सव, जिसे वैदिक पर्व परम्परा में वासंती नवसस्येष्टि कहा जाता है।
होली के पर्व को लेकर अनेक मान्यताएं और कथाएं प्रचलित हैं। देश के भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में इसे मनाया भी विभिन्न प्रकार से जाता है और नाम भी पृथक हैं। लेकिन एक बात समान है वो है – प्रसन्नता, उल्लास। हर कोई इस अवसर पर प्रकृति के परिवर्तन के कारण मनोभावों में आये परिवर्तन को जीता है। इस पर्व के अपने अर्थ हैं। ये केवल कुछ कथाओं और किंवदंतियों से शुरू हुआ पर्व नहीं, बल्कि एक शाश्वत परम्परा जान पड़ती है। हमने कालांतर में इसके स्वरूप को विकृत किया है। भारत में होने वाले हर त्योहार का अपना महत्व है, अपना संदेश है। होली इनमे से एक है।
होली की जिन पौराणिक कथाओं का परिचय दिया जाता है, मैं बचपन से उससे संतुष्ट नहीं हुआ, या यूँ कहें जिस तरह से उनका वर्णन किया गया वह संतुष्ट नहीं करता। होलिका-प्रह्लाद की कथा सम्भवतः लोगों में भक्ति को बढ़ाने और असत्य आचरण को त्यागने के लिए कही गयी हो। मैंने बचपन से इस सहित अन्य पर्वों को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखने समझने का प्रयास किया है। एक बहुत अच्छे विद्वान रहे हैं, श्री राजेंद्र जिज्ञासु जी। उनका प्रवचन चल रहा था। मैं अपने दादा जी के साथ बालपन में सुनने गया था। उन्होंने जो प्रश्न रखे थे वही कारण बन गए हर पर्व और त्योहार के पीछे की परम्परा और वैज्ञानिकता को तलाशने का। होली के साथ भी ऐसा ही रहा। जहां तक मैंने समझा है ये पर्व वसंत के आगमन का पर्व है। नई फसल के आगमन का पर्व है। प्रकृति के परिवर्तन का पर्व है। प्रेम का पर्व है।
आपको किसी पर्व को समझना है तो उसके नाम के शब्दार्थ को समझें। उसके पीछे के कारण स्पष्ट होते जाएंगे। संस्कृत भाष्य में अधपके अन्न को होलक कहते हैं। बचपन में आपने भी होला खाया होगा। वो इसी समय आता है। रबी की फसल होली के समय तक अधपकी होती है। उसे अग्नि में भूनकर प्रसाद के रूप में वितरित किया जाता है। ईश्वर का धन्यवाद दिया जाता है। इसी होलक से ये होलकोत्सव बना जो होलिकोत्सव से होली बन गया। वासंती नवसस्येष्टि इसी लिए नाम पड़ा, नवीन अन्न के भोग का उत्सव। यह संवत्सर के जाने का, नए सम्वतसर के स्वागत का पर्व है। ऋतुओं की संधि बेला है। और संधिबेला है प्रकृति और जीव की, स्त्री और पुरुष की।
इस पर्व के अलौकिक और दार्शनिक पक्ष भी हैं। मुझे लगता है होलिका की कथा कुछ विकृत मस्तिष्कों की उपज है। ये मूल रूप से स्त्री के पूजन का पर्व है। यदि होलिका राक्षसी होती और प्रह्लाद को चिता पर लेकर बैठती तो हम चौराहों पर रखी जाने वाली होली को होलिका मईया की जय के उद्घोष से सम्बोधित तो न करते। और न ही उसका आकार त्रिशंकु बनाते, उसे चिता का ही रूप देते। लेकिन ऐसा नहीं किया गया। यानी होलिका नाम की कोई आसुरी शक्ति थी ही नहीं। गेहूं की बाली को स्त्री रूप में लें, उसके भीतर होता है अधपका खाद्यान्न – यानी होलक। अग्नि पुरुष रूप है। स्त्री और पुरुष के सम्पर्क के कारण वह अधपका खाद्यान्न संस्कारित होकर आपके सामने आता है जिसका प्रसाद बांटा जाता है। कुछ दिनों बाद वही अन्न पक जाता है और लोगों को जीवन देता है। इसलिए ये स्त्री जाति के धन्यवाद का पर्व है। स्त्री स्वयं जलकर सृजन की साक्षी बनती है। इसलिए हम होलिका माई के जयघोष के साथ उत्सव मनाते हैं।
इस ऋतु के आसपास जीवों में भी प्रेम, संसर्ग, उल्लास और उत्सव भर जाता है। इसका कारण भी सम्भवतः यही है। उस प्रेम के रंग में डूबकर ही हर कोई जीता है, इसलिए ये रंगों का पर्व हो गया। इस पर्व में ढाक यानी टेसू और पलाश के फूल आते हैं। उनसे रंग बनाया जाता था और खेला जाता था। न केवल ये उत्सव था बल्कि आयुर्वेद के लिहाज से स्वास्थ्यदायक भी था।
होली अनेक अर्थ लिए है, अनेक रूप लिए है। लेकिन इसका मुख्य भाव तो प्रेम, उत्सव और उल्लास ही है। इस दिन तो हर कोई गले मिल जाता है। ये मिलन का पर्व है। जीव का प्रकृति से, जीव का परमात्मा से, प्रकृति का परमात्मा से, स्त्री का पुरुष से, काम का रति से, भोग का त्याग से, वैर का प्रेम से। हर किसी के मिलन का पर्व है। इन दिनों जो भी माहौल रहा उसे छोड़ दें। आएं इस उत्सव में डूब जाएं। रंग खेलें, रंग लगाएं। रंगों से भरे इस पर्व में सराबोर हो जाएं आओ होली मनाएं।
रंगोत्सव की शुभकामनाएं।
सभी चित्र : इंटरनेट से