हमारी संस्कृति प्रश्न करने की, प्रश्नचिह्न खड़ा करने की नहीं
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- अभिनव 'अभिन्न'
- September 29, 2023
- कला-संस्कृति ताज़ा आलेख नज़रिया
भारत के उपनिषदों में प्रश्न करने से प्रारम्भ हुई है ज्ञान की परम्परा और बनी है भारतीय संस्कृति। लेकिन वर्तमान में उसके सामने चुनौतियाँ कम नहीं हैं। सबसे बड़ा संकट है प्रश्न करने का अभ्यास बनना। भारतीय संस्कृति की महानता और उच्चता उसके प्रश्न करने के कारण ही थी। वर्तमान में प्रश्न करने और उसके उत्तर खोजने की परम्परा नष्ट होने के कारण हम पिछड़ रहे हैं। हम रूढ़ होते जा रहे हैं।
विश्व इतिहास के अध्ययन की विभिन्न विधियों में पाश्चात्य विधियों को आधुनिक काल में सर्वमान्य मान लिया गया है। इन विधियों में श्रेष्ठ और निकृष्ट होने का भाव जन्म लेता और मृत होता रहा है। कालान्तर में करीब 200 सालों में यह तथ्य स्थापित किया गया कि पाश्चात्य सभ्यता और संस्कृति अधिक विकसित और प्रगतिशील है। किन्तु यह तथ्य कोई स्थापित नहीं कर सका कि विश्व की प्राचीनतम सभ्यता और संस्कृति किसी पश्चिमी देश की रही हो। समाजशास्त्र की विभिन्न अध्ययन पद्धतियाँ हों या फिर दर्शनशास्त्र, विज्ञान के अध्ययन की शाखाएँ, सभी वर्तमान में इस मत पर एकराय हैं कि विश्व में भारतीय संस्कृति और सभ्यता सर्वाधिक प्राचीन है। अर्थव्यवस्था के मामले में हम भले ही वर्तमान में विकासशील देशों में ही गिने जा रहे हों लेकिन सभ्यता और संस्कृति के क्षेत्र में सर्वाधिक विकसित देश हम ही रहे हैं। यह स्वीकार्यता ऐसे ही नहीं बनीं। अपनी सांस्कृतिक विरासत से अनभिज्ञ रहने या यूँ कहें उसको किनारे कर पाश्चात्य चश्में से भारत को देखने के दृष्टिकोण में आई कमी ने दोबारा हमारे भीतर एक गौरव का भाव पैदा किया है। निश्चित रूप से वर्तमान सरकार के प्रयास इस दिशा में उल्लेखनीय हैं। संस्कृति, सांस्कृतिक विरासत और उसके संरक्षण और पुनरुद्धार को लेकर विभिन्न मंचों पर चर्चाएँ होती रही हैं, उसमें चिन्ताएँ भी व्यक्त की जाती रही हैं। लेकिन इन चिन्ताओं पर चर्चा से पूर्व यह भी जरूरी है कि हम संस्कृति, संरक्षण और विरासत के सही मायने समझ लें। भारतीय संस्कृति या विश्व की किसी भी अन्य संस्कृति के सम्बन्ध में बात करने से पूर्व संस्कृति के अर्थ को समझ लेना जरूरी है। इससे हम समझ पायेंगे कि हमें क्या बचाना है और कैसे बचाना है?
संस्कृत भाषा के ‘कृ’ धातु में ‘सम्’ उपसर्ग और ‘ति’ प्रत्यय से संस्कृति शब्द की व्युत्पत्ति हुई है। संस्कृति को शब्द रूप के अर्थ से समझने पर हम जानते हैं कि संस्कृति, सभ्यता कि तरह बाहरी रूप से विकसित ढाँचा नहीं है। बल्कि यह पीढ़ी दर पीढ़ी सौंपी गई परम्पराओं, रीतियों, सिद्धान्तों की एक नियमावली है। यह मूर्त नहीं है, अमूर्त है, और विशेष रूप से यह रूढ़ नहीं है। यह परिष्कृत और परिमार्जित होती रहती है। संस्कृति को वर्तमान में जिस संकीर्ण अर्थों में पढ़ा जाता या समझाया जाता है यह उससे कहीं अधिक विस्तृत और गूढ़ है। पाश्चात्य विद्वान जहाँ संस्कृति को कला, व्यवहार आदि तक सीमित रखते हैं। वहीं भारतीय विद्वान इसको कहीं अधिक व्यापक मानते हैं। वह केवल मानव ही नहीं प्रकृति को भी संस्कृति का हिस्सा मानते हैं। मूलतः जब कोई कृति यानी कर्म, कार्य सही प्रयोजन से, सही प्रकार से, सही उद्देश्य से प्रतिपादित किया जाए, उसको एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक दिया जाए या नई पीढ़ी द्वारा पिछली किसी गलत परम्पराओं को छोड़कर उसका परिमार्जन करके उसका अनुसरण प्रारम्भ किया जाए तो वह संस्कृति बनती है। इसके विपरीत जब उसमें दोष आने लगे तब वह विकृति बनती है। इस अर्थ के साथ हमें संस्कृति को समझने में आसानी होगी।
भारत की संस्कृति अमूर्त रूप से अरबों वर्षों से अक्षुण्ण है। मेरे इस मत पर संस्कृति को निर्धारित सीमाओं में बाँधकर उसका अध्ययन करने वाले विद्वान अनेक आपत्तियाँ करेंगे। पहले तो यही आपत्ति आधुनिक विज्ञान और इतिहास के अध्ययेता करेंगे कि भारतीय संस्कृति अरबों वर्ष पुरानी है क्या? इसका साक्ष्य क्या है? क्या भारतीय संस्कृति के साथ अन्य कोई संस्कृति नहीं बनी थी? आदि-आदि। तो यहाँ मैं स्पष्ट करना चाहूँगा कि मैं पूर्व में ही कह चुका कि यह अमूर्त है। यह पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित की जाती है। यह चलायमान होती है। भारतीय संस्कृति कि जब हम बात करते हैं तो वह केवल वर्तमान के भारतीय भू-भाग तक ही सीमित नहीं हैं। बल्कि वह ईरान, ईराक, मेडागास्कर, बाली, सुमात्रा, जावा, अरब, खाड़ी देशों आदि तक फैली है। यह अलग बात है कि उनके स्वरूपों में बदलाव आया है। उस संस्कृति के संवाहक अब आधुनिक पंथों का अनुसरण करने लगे हैं, लेकिन उनके पूर्वजों द्वारा जिन सनातन परम्पराओं को निभाया जाता था वह आज भी उन्हीं परम्पराओं का निर्वाहन कर रहे हैं। बहुत ताजा उदाहरण देखें, भारत में मनाया जाने वाला छठ पर्व अब अमेरिका में भी मनाया जाता है। लेकिन यह अमेरिका की संस्कृति नहीं है। लेकिन जैसे-जैसे छठ मनाने वालों की कुछ पीढ़ियाँ अमेरिका में इसे मनाती रहेंगी, वैसे-वैसे वहाँ का समाज इसे स्वीकार कर लेगा, फिर वहाँ के मूल निवासी भी इसमें शामिल हो जाएंगे और अनेक वर्ष बाद यह वहां की संस्कृति का हिस्सा बन जाएगी। यहाँ मैं दृढ़ता से कहूँगा कि संस्कृति का प्रत्येक अंग कला, शिल्प, विज्ञान के पीछे कुछ मजबूत तर्क और कारण होते हैं।
विश्व की सभी अध्ययन शाखाएं इस बात पर एकमत हैं कि विश्व में ज्ञान का सबसे प्राचीन ग्रन्थ ऋग्वेद है। नासा ने भी ऋग्वेद में दी गई पृथ्वी की आयु की काल गणना को सही माना है। ज्ञान के इन्हीं ग्रन्थों में मानव संस्कृति का आधार छिपा है। समाज की स्थापना, शासन, राजा के व्यवहार, परिवार के उत्तरदायित्व, समाजिक व्यवहार, व्यवस्था, कर्मकाण्ड आदि सभी इनमें निहित हैं। भारतीय उपमहाद्वीप में समय-समय पर ऐसे अनेक ऋषि हुए हैं जिन्होंने अपनी मेधा से ऐसे ग्रन्थों और विद्याओं का आविष्कार किया है जो मानवमात्र के कल्याण की रही हैं। अब तो पाश्चात्य विद्वान भी इसे स्वीकारने से इनकार नहीं करते कि भारत का ज्ञान प्राचीनकाल में वर्तमान से कहीं अधिक विकसित था। मैकाले और उनके समकालीन यात्रियों, पूर्व में फाह्यान, मैगस्थनीज़ आदि विदेशी यात्रियों के यात्रा वृतान्तों को पढ़कर यह जानकारी मिलती है कि भारत कितना विकसित रहा है। फाह्यान अपने यात्रा वृतान्त में लिखता है कि जब वह भारत आया तब यहाँ पानी से बर्फ बनाने, शल्य चिकित्सा यानी सर्जरी की शिक्षा दी जा रही थी। दक्षिण भारत के विश्वविद्यालयों में गणित, विज्ञान, अभियांत्रिकी की शिक्षा दी जा रही थी। भारत में ऐसे विश्वविद्यालय थे जहाँ विश्व के विभिन्न देशों से आए दस लाख विद्यार्थी विभिन्न विषयों की शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं। इनमें तक्षशिला और नालन्दा विश्वविद्यालय ऐसे संस्थान हैं जहाँ एक-एक लाख विद्यार्थी उच्च शिक्षा का अध्ययन कर रहे हैं।
भारत में कणों यानी एटम की जानकारी देने वाले महर्षि कणाद जैसे महान गणितज्ञ और भौतिक विज्ञानी हुए हैं। यहां न्याय अर्थात विधि या लॉ को लिखने वाले महर्षि अक्षपाद गौतम हुए हैं। यहां आयुर्वेद या मेडिकल साइंस को जानने वाले महर्षि च्यवन, चरक, सुश्रुत हुए हैं। ज्ञान परम्परा में भारत की संस्कृति विश्व की किसी भी संस्कृति से अधिक प्राचीन है। इन्हीं ज्ञान ग्रन्थों से निकली हैं मानव संस्कृति कि विभिन्न परम्पराएं। ज्ञान से हटकर अब हम उस क्षेत्र में आते हैं जिसे साधारण रूप से संस्कृति का हिस्सा माना जाता है यानी हमारी परम्पराएँ। वर्तमान में हमारी लोक परम्पराएँ हमारी संस्कृति का मूल हैं। भारतीय समाज इन्हीं परम्पराओं का संरक्षण अनादिकाल से करता चला आ रहा है। वर्तमान समय में इसका गौरव अधिक बढ़ा है। हमारी लोक संस्कृति में देव उपासना, ऋतुओं का स्वागत प्रमुख रहा है। इसमें प्रकृति का संरक्षण, मानव और प्रकृति का सम्बन्ध, जीव संरक्षण शामिल रहा है। इनके पीछे छिपे अमूर्त किन्तु दार्शनिक भाव ही भारत को भारत बनाते हैं। राम पूरे देश के लिए पूज्य हैं किन्तु मिथिला में उनके लिए गाए गए गीतों में उनसे तकरार है, हँसी-ठिठोली है, उन्हें गालियाँ भी दी जाती हैं क्योंकि वह मिथिला के दामाद हैं। भारत में देवात्माओं को परिवार का हिस्सा माना जाता है। इसलिए अयोध्या में लला राम, मिथिला में दामाद और ओरछा में राजा हो जाते हैं। मथुरा के लड्डू गोपाल द्वारिका में द्वारिकाधीश हो जाते हैं।
ईशोपनिषद् के प्रथम मंत्र का दृष्टा ऋषि कहता है –
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा, मा गृधः कस्य स्विद्धनम्।
यह धन किसका है, इसका त्यागपूर्वक भोग करो।
यही हमारी संस्कृति रही है। भारत की संस्कृति त्याग की संस्कृति हैं। धन से तात्पर्य केवल रूपया, सम्पत्ति नहीं, बल्कि रूप, रंग, शरीर, ज्ञान सब से है। इसे अपना मान लेना गलत है। इसलिए हमारी संस्कृति विद्या को बाँटते रहने की बात करती है। क्योंकि वह खुद तक सीमित नहीं है। वह बाँटने से बढ़ती है। इसलिए भारत में कभी ज्ञान का कॉपीराइट और पेटेण्ट नहीं हुआ। कबीर ने जो कहा, तुलसी ने जो कहा, भारत के ऋषियों ने जो कहा वो सबको दिया, सबके लिए कहा। उनका दिया ज्ञान सनातन है, सर्वकालिक है। लेकिन भारतीय प्राचीन ग्रन्थों को लेकर समाज का एक वर्ग अब भी उन्हें प्राचीन कहकर नकारता है। हमारे इतिहास को काल्पनिक इतिहास या साहित्य मानने वाले लोग कभी यह स्वीकार नहीं करेंगे कि राघव राम नौ लाख वर्ष पूर्व जन्में थे और उस समय भारत में नैनो टेक्नोलॉजी इतनी विकसित थी कि तत्कालीन योद्धा नैनो मिसाइल को साथ लेकर चलते थे। वह नहीं स्वीकार करेंगे कि क्लोनिंग का विज्ञान और विद्या भारत में पहले से है। जिस आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस को लेकर वर्तमान में बहस चल रही है और उसके आविष्कार के साथ कुछ वैज्ञानिक खुद पर इतरा रहे हैं, वह भारत में आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस होने के दावों को नहीं मानेंगे। लेकिन उनसे पूछना चाहिए कि मारीच का अचानक हिरन में बदल जाना क्या आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस तकनीक का प्रयोग कर राम को दिग्भ्रमित करने का प्रयास नहीं था। ज्ञान की इस सांस्कृतिक विरासत का संरक्षण जरूरी है। वर्तमान में सरकार ने भारतीय संस्कृति के उस ढाँचे का संरक्षण प्रारम्भ कर दिया है जो उसके वर्तमान इतिहास की जानकारी देती हैं। इनमें ऐतिहासिक ग्रन्थ, पुरातात्विक इमारतें आदि शामिल हैं। लेकिन अभी भारतीय संस्कृति की मूल हमारी परम्पराएँ, ज्ञान, कलाओं, विज्ञानों को सहेजना शेष है और इन्हें सहेजने और संरक्षित करने का उत्तरदायित्व केवल भारत सरकार या किसी संस्था का नहीं होना चाहिए। भारतीय संस्कृति पर गौरव करने वाले प्रत्येक व्यक्ति का होना चाहिए।
भारतीय संस्कृति का आधार हमारे ग्रन्थ हैं। उनका अध्ययन हमें बताता है कि भारत की संस्कृति रही है – प्रश्न। वैदिक वाङ्गमय के अंग उपनिषदों के ऋषि कहते हैं – प्रश्न करो। प्रश्न ही हमारे भीतर जिज्ञासा जगाते हैं, प्रश्न ही हमें हमारी खोज कराते हैं। प्रश्न शास्त्र को जन्म देता है, प्रश्न आविष्कार को जन्म देता है। प्रश्न हमारे अस्तित्व को पहचानने में सहायता करता है। वर्तमान में भारतीय मेधा प्रश्न करने से बचती है। वह ऐसे को ऐसा ही मान लेने की आदी बनती जा रही है। जबकि भारतीय संस्कृति जैसे को वैसा मान लेने की पक्षधर नहीं रही। इसलिए भारत में ज्ञान की विभिन्न शाखाएँ बनीं। मैं दृढ़ता से कहूँगा कि हम स्वयं को केवल भारत तक ही सीमित न रखें। भारतीय संस्कृति – ‘‘वसुधैव कुटुम्बकम्’’ में विश्वास करने वाली संस्कृति है। जब हम विश्व की विभिन्न संस्कृतियों का भी समान भाव से अध्ययन और संरक्षण करेंगे और उसके बाद मानव संस्कृति के इतिहास पर प्रश्न करेंगे तब न केवल समझ पाएंगे बल्कि सिद्ध भी कर पाएंगे कि बहरीन में होने वाली विवाह परम्पराएँ भारतीय समाज से क्यों मेल खाती हैं? बाली, सुमात्रा, जावा, मेडागास्कर जैसे स्थानों पर राम को मानने की परम्पराएं क्यों है? मंगोलिया में जन्मे चंगेज खान जिस पंथ का अनुयायी था वह टेगरिज़्म या टोटम प्रथा कहीं न कहीं भारतीय संस्कृति के कर्मकाण्डों से प्रेरित है। क्यों मक्का में आज भी एक बिना सिले वस्त्र के साथ पवित्र हज यात्रा करने और उसकी परिक्रमा करने की परम्पराएँ हैं। लेकिन यह सब तभी सम्भव है जब हम पूर्वाग्रहरहित होकर सभी संस्कृतियों का समानरूप और समानभाव से अध्ययन कर उन पर तार्किक रूप से शोध करें, प्रश्न करें और अपनी मान्यताओं को स्थापित करें।