चीज़ नहीं, अज़ीज़ होती हैं बेटियाँ
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- अभिनव 'अभिन्न'
- December 17, 2022
- नज़रिया
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सहालग के मौसम में तमाम लोगों के घरों में खुशियाँ आती हैं। बरसों से चली आ रही परंपराओं को निभाया जाता है। लेकिन अब नया दौर है। हर परम्परा पर सवाल उठाए जाते हैं। खुद को प्रगतिशील बताने के चक्कर में हर पुरातन परम्परा को कटघरे में खड़ा किया जाता है। इन दिनों तेजी से बिना सोचे समझे हम कन्यादान को कटघरे में खड़ा कर रहे हैं। बेटियाँ सवाल कर रही हैं कि कन्यादान क्यों, और पिता समर्थन कर रहे हैं कि हाँ, परम्परा तो ग़लत है। बिना दर्शन समझे सवाल हो रहे हैं। जैसे बिना शख़्स समझे इश्क हो रहा है। इसलिए प्यार और परम्पराएं टुकड़े-टुकड़े हो रही हैं।
ओं मम व्रते ते हृदयं दधामि मम चित्तमनु चित्तं ते अस्तु।
मम वाचमेकनमा जुषस्व प्रजापतिष्ट्वा नियुनक्तु मह्यम।।
हे वधु ! तेरे अन्तःकरण और आत्मा को मेरे कर्म के अनुकूल धारण करता हूँ, मेरे चित्त के अनुकूल तेरा चित्त सदा रहे, मेरी वाणी को तू एकाग्रचित्त से सेवन कर। प्रजा का पालन करनेवाला परमात्मा तुझको मेरे लिए नियुक्त करे।
वैसे ही,
हे प्रिय वीर स्वामिन ! आप का हृदय और अन्तःकरण मेरे प्रियाचारण कर्म में धारण करती हूँ। मेरे चित्त के अनुकूल आपका चित्त सदा रहे। आप एकाग्र हो के मेरी वाणी का जो कुछ मैं आप से कहूँ उस का सेवन सदा किया कीजिये क्योंकि आज से प्रजापति परमात्मा ने आप को मेरे आधीन किया है।
विवाह संस्कार में बोले जाने वाले इस मंत्र प्रतिज्ञा को वर-वधु एकभाव से उच्चारित और स्वीकार करते हैं। इसमें कोई गुरुतर नहीं, दोनों समान हैं। वधु को वर के लिए नियुक्त किया गया है। जबकि वर को वधु के आधीन किया गया है। ऐसी प्रतिज्ञा के बाद भी क्या कोई मान सकता है कि विवाह में बेटी को वस्तु मानकर दान किया गया है। ज़रा सोचिए, क्यों कर बनाई कन्यादान की परम्परा? बिना समझे तथाकथित स्त्रीवादियों के पीछे झण्डा लेकर चल दें। मान लें कि बेटियाँ चीज़ होती हैं, इसलिए दान की जा रही हैं। साहब, अज़ीज़ होती हैं, इसलिए दान जुड़ा है उनके साथ। पुत्रदान की परम्परा तो कहीं नहीं हैं। क्यों, कभी सोचा है? सोचिएगा, सवालों के जवाब मिलेंगे। बुद्ध कहते हैं ‘‘अप्प दीपो भवः’’ यानी अपने दीपक स्वयं बनों। जब खुद दीपक बनोगे तो फेसबुक और व्हॉट्सएप के फारॅवर्ड की जरूरत नहीं पड़ेगी। दिमाग में बत्ती जलेगी, जवाबों की।
ज़रा सोचकर देखिए जो चीज़ आपकी सबसे अज़ीज हो क्या आप उसे दे सकते हैं किसी को, लेकिन एक माता-पिता होते हैं जो अपनी बेटी सौंपते हैं किसी को। क्यों नहीं बेटे सौंपे जाते किसी के हाथ? क्योंकि दान फलता है, बढ़ता है, बढ़ाता है। बेटे क्या बढ़ाएंगे? कैसे बढ़ाएंगे? सोचकर देखिए। बेटे दिल का टुकड़ा नहीं होते, पिताओं के लिए बेटियाँ होती हैं और बेटियों के लिए उनका दिल होते हैं पिता। और किसी को अपना दिल देने के लिए और अपने दिल को छोड़कर किसी दूसरे के साथ जाने के लिए दिल चाहिए होता है। ये नहीं है हम बेटों के पास। इन बेटियों के पास है। हम नहीं बना सकते किसी का परिवार, नहीं बढ़ा सकते किसी का परिवार, इसलिए हम लाते हैं किसी को अपने घर जो पूरा कर सके हमारा वंश आगे बढ़ाने के सपने को। दान लेने वाला होता है ‘भिक्षुक’। ज़रा सोचकर देखिए, पाणिग्रहण संस्कार के समय दामाद को किस रूप में देखा जाता है – विष्णु के। और विष्णु का वामन अवतार क्या था – भिक्षुक का न। तो बेटों वाले ये न मान लें कि उनकी औलाद विष्णु पद पर बैठी है तो खुदा है, और बेटियों के बाप ये न सोचें कि बेटियाँ चीज़ हैं इसलिए दान दे दी गईं। अपना वंश बढ़ाने की इच्छा से कोई झोली फैलाए खड़ा है आपके सामने। नसीबवाले हो इसलिए दे पा रहे हो दान, नहीं तो नहीं कर पाते लोग दान।
एक लड़का या लड़की किसी से जब प्यार करते हैं तो उन्हें छोड़ने का ख्याल भी मन में आने से काँप जाते हैं। जिस दिन ब्रेकअप होता है तो टूट जाते हैं। सोचिए जिस पिता को पता होता है कि एक दिन उसका अपने प्यार के साथ ब्रेकअप होगा फिर भी वो जिन्दगी भर अपनी बेटी को नाज़ के साथ पालता है तो क्या वो चीज़ है कोई? संसार में मोह दुख का कारण है, त्याग जीवन को आसान बनाता है। पूछा और पूजा जाता है वो जो दानी होता है, त्यागी होता है। कन्या का दान अपने सबसे प्रिय अंश का त्याग है, इसलिए बेटियों के पिता हैं पूजे जाने योग्य। इसलिए भारतीय परिवारों में माना जाता था बहुओं को घर की लक्ष्मी। क्योंकि वो हैं विष्णु की भार्या।
जिन बेटियों ने आईएएस बनकर खुद को आधुनिक दिखाने के छलावे में अपने पिता को नहीं करने दिया कन्यादान वो खुश हैं, लेकिन क्या मिला इससे, एक दर्शन का अन्त ही किया, अपने पिता को एक कर्म से वंचित ही किया। उस पिता ने इस परम्परा को करने से इसलिए इनकार नहीं किया क्योंकि वो भी मानता है उसकी बेटी चीज़ नहीं है। बल्कि इसलिए नहीं निभाई ये परम्परा क्योंकि उसे बेटी की खुशी ज्यादा प्यारी थी। परम्परा बस परम्परा होती है। उसे अच्छा या बुरा हम बनाते हैं। निर्भर आप पर करता है कि आप उसमें क्या तलाशना चाहते हैं। उसे किस मन से अपनाना चाहते हैं। आप दान चीज़ मानकर देंगे तो सामने वाला उसे चीज़ बनाकर ही इस्तेमाल करेगा। दिल का टुकड़ा बनाकर दान करके देखिए, सामने वाला दिल में बसाकर रखेगा। और न रखे तो फिर चीर देना उसका दिल, क्योंकि दिल दिया है आपने, हक़ नहीं है किसी को खिलवाड़ करने का।
© अभिनव ‘अभिन्न’ (लेखक के निजी विचार।)