दिलों का अज़ीज़, लहजे का लज़ीज़ और वक़्त का जदीद शायर : राहुल अवस्थी
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- अभिनव 'अभिन्न'
- September 9, 2020
- रू-ब-रू
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एक दरख़्त था – ऊंचा-पूरा, हरा-भरा, ख़ूब छतनार, बहुत विस्तार लिए। थके-मांदे मजदूर, मुसाफ़िर आते-जाते उसके नीचे छांव पाते, तो सुस्ताने बैठ जाते। समय का सूरज चढ़ता जा रहा था और दरख़्त का व्याप बढ़ता जा रहा था। अनगिन चिड़िया-चुनगुन उस पर आसरा पाते। बच्चे उसके फल चुराकर भाग जाते। गांव और आसपास के लोग अक्सर उसकी टहनियां काटकर ले जाते। सब निश्चिन्त थे, परम प्रसन्न थे। गांव वालों को अपनी आवश्यकताओं के ईंधन के लिए पर्याप्त लकड़ियां मिल रहीं थीं।
आबादी बढ़ी तो ईंधन की ख़पत भी बढ़ी। अब उस पेड़ का दोहन तेजी से होने लगा। अपनी ज़रूरतों के लिए गांव वालों ने उस दरख़्त को पूरा ही काट लिया। कुछ ने चूल्हे जलाए, कुछ ने आशियाने बनाने के लिए बल्लियां बना लीं। उसे हर तरह प्रयोग किया गया लेकिन अब गांव वालों के लिए आगे के लिए संकट ज़रूर खड़ा हुआ। न ईंधन का कोई साधन बचा, न ही फलों के लिए। ईंधन के अभाव में गांव वाले परेशान हो गए। कई घरों में चूल्हा नहीं जला और फिर धीरे-धीरे उस गांव में भूख से मौतें होने लगीं। जो बचे, वे जान बचाने को पलायन कर गए।
समय का चक्र चलता रहा। कुछ समय बाद उस पेड़ की जड़ से फिर से कन्नस फूटीं – उसमें से कोंपलें निकलीं। दरख़्त धीरे-धीरे फिर से बढ़ना शुरू हुआ – वह फिर छतनार हुआ, उसने फिर अपना विस्तार लिया। परिन्दे आसरा पाने आने लगे, मुसाफ़िर और मजदूर जुटने लगे। एक लंबा वक़्त बीत चला था। पलायन कर चुके ग्रामीणों की अगली पीढ़ी ने गांव में फिर शरण ली। ये नई उम्र के लोग उसकी उपयोगिता भी जानते थे और अपनी आवश्यकता भी – वे यह भी जान चुके थे कि इस दरख़्त की जड़ें कितनी गहरी हैं, वे यह भी जान चुके थे कि इसकी जिजीविषा कैसी है, वे यह भी जान चुके थे कि इसका होना हमारे लिये कितना ज़रूरी है!
समय का चक्र चलता रहा। कुछ समय बाद उस पेड़ की जड़ से फिर से कन्नस फूटीं – उसमें से कोंपलें निकलीं। दरख़्त धीरे-धीरे फिर से बढ़ना शुरू हुआ – वह फिर छतनार हुआ, उसने फिर अपना विस्तार लिया। परिन्दे आसरा पाने आने लगे, मुसाफ़िर और मजदूर जुटने लगे। एक लंबा वक़्त बीत चला था। पलायन कर चुके ग्रामीणों की अगली पीढ़ी ने गांव में फिर शरण ली। ये नई उम्र के लोग उसकी उपयोगिता भी जानते थे और अपनी आवश्यकता भी – वे यह भी जान चुके थे कि इस दरख़्त की जड़ें कितनी गहरी हैं, वे यह भी जान चुके थे कि इसकी जिजीविषा कैसी है, वे यह भी जान चुके थे कि इसका होना हमारे लिये कितना ज़रूरी है!
अपने समय के तमाम नामों ने इस शायर से बहुत कुछ उधार लिया और काव्यमंचों पर अपनी प्राणप्रतिष्ठा करवाई लेकिन वे ही इसका नुकसान करते रहे, इसके तने-व्यक्तित्व पर पूरी ताक़त से प्रहार करते रहे और जड़ों को दीमक की तरह लगकर चाटते रहे, लेकिन उनका खेल ख़त्म हुआ। फिर इस शायर की कन्नस फूटीं और दूसरी पारी में भी अपना सर्वश्रेष्ठ देकर लोगों के दिलों पर छा गया। अब के दौर के नए रचनाकार इस शायर की उपयोगिता को जानते हैं और पहचानते हैं, इसलिए उसे सहेज भी रहे हैं। हालांकि अभी भी षड्यंत्रों की कमी नहीं है, फिर भी शायर अपनी साधना में रमा हुआ है।
मैं बात कर रहा हूं हिंदी काव्यमंचों के प्रपंचों से पृथक स्वयं को स्थापित करने वाले कवि और शायर डा. राहुल अवस्थी की। मुझे लगता है कि जो लोग उन्हें जानते हैं, वे मेरे शीर्षक से सहमत होंगे और जो नहीं जानते, वे इस लेख के अगले हिस्से में इस शीर्षक की सार्थकता को स्वयमेव समझ जायेंगे। शीर्षक में मैंने तीन अंश दिए हैं – दिलों का अज़ीज़, लहजे का लज़ीज़ और वक़्त का जदीद शायर। लेकिन मैं क्रम पीछे से शुरू करूंगा। यानी सबसे पहले बात करूंगा मेरे शायर के वक़्त के जदीद होने के बारे में, इसके बाद लहज़े में लज़्ज़त की। यदि ये दोनों समझ गए, तो इस बात की प्रत्याभूति मैं लेता हूं कि वह आपके दिल के भी अज़ीज़ शायर बन जायेंगे। तो आइए, तनिक दृष्टि डालते हैं –
सभी की ज़िन्दगी में प्रीति की ये रीत होती है
ज़रा-सी हार होती है, ज़रा-सी जीत होती है
किसी का गीत होता है किसी की ज़िंदगानी पर
किसी की ज़िंदगानी ही किसी का गीत होती है
(हमें तुम गुनगुनाओगे : गीत संग्रह)
राहुल अवस्थी को मैं एक लेखक की दृष्टि से देर से जान पाया। पहले मैं उन्हें अग्रज की दृष्टि से ही देख पाया। हालांकि मेरी और उनकी पहली मुलाकात एक काव्यमंच पर ही हुई थी। मैं उस मंच का सबसे अपरिपक्व हस्ताक्षर था और राहुलजी उसके मुख्य अतिथि थे। वर्ष था – सन् 2009, तारीख़ थी -13 नवंबर, और अवसर था मुरादाबाद के एमएच काॅलेज के हिंदी विभाग की शोधसंगोष्ठी के रात्रिसत्र में आयोजित एक कविगोष्ठी। इस मधुर मुलाक़ात के हेतु बने थे मेरे शिक्षक डा. मुकेश गुप्ता और डा. प्रणव शास्त्री जी।
एक अति साधारण युवक जो अवस्था में मुझसे कोई आठेक वर्ष बड़ा होगा, गुम्फित केश, कुछ हरे-नीले का मेल ली हुई शर्ट, मटमैली-सी कट्टी जैकेट, काली पैंट, पैरों में सैंडलनुमा चप्पलें। नवगीत के एक बड़े नाम आदरणीय माहेश्वर तिवारी सत्र की अध्यक्षता कर रहे थे। मुझे याद है कि अध्यक्षीय उद्बोधन सत्र के आरंभ में था। ऐसा इसलिए, क्योंकि वो काव्यगोष्ठी परंपरागत गोष्ठियों से भिन्न थी, लिहाज़ा अध्यक्ष के विचार सुनना ज़्यादा ज़रूरी था। गोष्ठी में अध्यक्षीय काव्यप्रस्तुति सबसे अंत का विषय था।
उस उद्बोधन में माहेश्वरजी ने टिप्पणी की थी कि आप अपने समय के सबसे ऊर्जावान् और अनुभवी युवा गीतकार को आज सुनने वाले हैं। जब तक राहुल जी मंच पर नहीं आए थे, सब यही सोच रहे थे उन्हें देखते हुए कि वह भी कुछ गोष्ठियोंछाप साधारण-सी प्रतिभा रखने वाले कवि होंगे, लेकिन जब उन्होंने अपनी वाणी से शब्दों का संधान किया और काव्यात्मक तीर छोेड़े तो पूरा पांडाल तालियों की तड़तड़ाहट से गूंज गया। ये पहला समय था, जब मैं उनका फ़ैन हुआ,और वो पसंद आज भी बरक़रार है। इस जन्म में इसका टूटना अब असंभव है।
इस घटना के बाद से मेरा और उनका रिश्ता विकसित होता चला गया। आज यह रिश्ता अनुज और अग्रज की प्रगाढ़ता वाला है। मैंने डॉ. अवस्थी का वह समय भी देखा है, जब वे लखनऊ-इलाहाबाद की ओर के अपने काव्य कार्यक्रमों के लिए त्रिवेणी के स्लीपर या जनरल बोगी से सफ़र करते हुए मिले हैं और आज वह दौर भी देख रहा हूँ, जब आयोजक उन्हें सुनने और सुनवाने के लिए हवाईजहाज की टिकट देकर या टैक्सी भेजकर घर से किसी भी क़ीमत पर बुलवाने के लिए राज़ी दीखते हैं। यूं तो यहां व्यक्तिगत तौर पर कहने को बहुत कुछ है और उसके लिए आगे बहुत अवकाश है, लेकिन मैं पाठकों को गीतकार तक लेकर आना चाहूंगा।
राहुलजी के गीतों की सबसे बड़ी विशेषता है उनका ज़िन्दा छन्दविधान। मुर्दा बह्रों में उनकी आस्था नहीं। एक तो उनके छन्द दौड़ते और चलते हुए होते हैं, दूसरे जब वे मिलाजुला कर छन्द प्रयोग करते हैं तो वह अद्भुत छन्दयोजना सराहने-सुनने लायक होती है। सबसे बड़ी बात है उनका मात्रिक और वार्णिक छन्दों का मिला लेना और झुमा देना। एक जगह तो उनका प्रयोग ऐसा हुआ कि दो अलग पंक्तियां – एक मात्रिक, एक वार्णिक। पहली के वर्ण उन्होंने दूसरी की मात्राओं से निभाये। यह काम उनका नितांत अपना और विशेष है। छंदों का चम्पू प्रयोग राहुलजी की विशिष्ट पहचान है और यह केवल उनके गीतों में ही नहीं, वरन् उनकी अन्य रचनाओं में भी मिलेगा। उनके अनगिन गीतों में आपको छंदशास्त्र के विविध विधान मिलेंगे।
रसों की बात करें तो साहित्य के सर्वमान्य ग्यारह के ग्यारहों रस में उनकी रचनाएँ हैं। राहुलजी रसों की अनुक्रमणिका हैं, वे इस बात के लिये प्रसिद्ध से कहीं अधिक सिद्ध हैं। वह संयोग को जिस शुद्धता और शुचिता से लिखते हैं, वियोग को भी उतनी ही तन्मयता और अनन्य अधिकार से गाते हैं। इसी तरह वह वीर रस को जिस दीप्ति से कहते हैं, करुण रस को भी उतनी ही तरल सरलता से सिसकते हुए सुना देते हैं। उनकी दोनों गीतकृतियों – ‘हमें तुम गुनगुनाओगे’ और ‘हमारे सामने आओ’ को अगर आप पढ़ेंगे, तो मेरी बात सच सिद्ध होगी।
वर्तमान में उनके बराबर व्याप में, उनकी गति से और उनकी रेंज में लिखने वाला कोई कवि शायद नहीं और मैं इस बात की प्रत्याभूति ले सकता हूं। यही स्थिति उनकी भाषा को लेकर भी है – हिंदी, ऊर्दू, फ़ारसी, अरबी, अंग्रेज़ी – सब के शब्द उनकी रचनाओं में बड़ी सरलता से टहलते मिल जायेंगे। ब्रज और अवधी ही नहीं, हिंदी की लगभग सभी भाषाओं, यहां तक कि मराठी और दक्षिण भारतीय भाषाओं के अनेक शब्दों को वह बड़ी सफ़ाई से अपने साहित्य का अपूर्व, अभिन्न, अनन्य और विशिष्ट हिस्सा बना लेते हैं। उनका शब्दऔदार्य अप्रतिम है।
मैं कहता भी हूं कि यदि आप काव्य में शब्दों की रेंज देखने के भूखे हैं, तो राहुल अवस्थी को पढ़िए, भाषा का इससे अच्छा शेफ़ आपको समकालीन साहित्य में मिल ही नहीं सकता। राहुल अवस्थी यह जानते हैं कि सामने वाले को क्या पसंद है, कितना पसंद है, कैसा पसंद है; इसलिये वे वही और उतना ही परोसते हैं कि आप उंगलियां चाटें, लेकिन अपच के शिकार न हों। बस, इसमें उनकी अपनी निष्ठा, रुचि और अनुभव अवश्य शामिल रहता है। उनकी भाषा में अन्य भाषाओं के शब्द जिस तरह आते हैं, उनके प्रवाह से आप अंदाज़ा ही नहीं लगा सकते कि वह कब आ गए। उदाहरण देखें –
जहां अपनी सदाओं का ज़ख़ीरा छोड़ आये हैं
निगाहों में मुहब्बत का ममीरा छोड़ आये हैं
तुला पर सब्र की, आत्मा अधीरा छोड़ आये हैं
ज़मीं की कोख में अनमोल हीरा छोड़ आये हैं
नज़र की हुक़्मरानी का नगर होगा, पता क्या था
वही अपनी दीवानी का शहर होगा, पता क्या था
(हमारे सामने आओ : गीत संग्रह)
इस गीतबन्ध में ऊपर की दो पंक्तियाँ ख़ालिस ऊर्दू और फ़ारसी के शब्दों को समेटे हुए हैं, वहीं तीसरी पंक्ति में सब्र के साथ जिस रफ़्त के साथ और जिस प्रवाह के साथ ‘आत्मा अधीरा’ का प्रयोग कवि ने किया है, वह प्रशंसनीय है, वह अप्रतिम है। इसी तरह नज़र और नगर का जो तुक एक ही पंक्ति में लिया है, वह भी बेजोड़ है।
इतनी सहजता और सरलता से आज के समय में कोई गीतकार या ग़ज़लकार ऐसे शब्दों का संयोजन कर ही नहीं सकता। इसी गीत के दो बन्ध और देखें और उनकी भाषा का अंदाज़ा लगाएं कि वह कितने उच्चावचन वाली है-
सफ़र का, रास्तों का रौब मंज़िल पर नहीं पड़ता
असर मक़तूल की चीखों का क़ातिल पर नहीं पड़ता
नदी के दर्द का कुछ भाव साहिल पर नहीं पड़ता
किसी भी चीज़ का कोई असर दिल पर नहीं पड़ता
निज़ामे-इश्क़ का ऐसा असर होगा, पता क्या था
बड़ा आसान-सा मुश्किल सफ़र होगा, पता क्या था
हमारी साधना-आराधना सम्वर्द्धना तक थी
हमारी सिद्धि शाश्वत सर्जना से वर्जना तक थी
हमारी ख्याति स्वीकृति से सहज आलोचना तक थी
वही सब हो पड़ा, जिसकी न हमको कल्पना तक थी
गदर की नाभि में ही मो’तबर होगा, पता क्या था
किसी की रूह में ही जानवर होगा, पता क्या था
(हमारे सामने आओ : गीत संग्रह)
दूसरे बन्ध की प्रारम्भ की दो पंक्तियाँ और शेष पंक्तियों में आपको भाषा, शब्द-संयोजन और रेंज का पता लग ही गया होगा। भाषा की दृष्टि से राहुलजी का साहित्य शब्दसैंक्च्युरी-सा महसूस होता है। राहुलजी का साहित्य शब्दों का अभयारण्य है, जहाँ विभिन्न भाषाप्रजातियों और जातियों के शब्द आपको बेरोकटोक टहल क़दमी करते अनायास मिल जायेंगे। ऐसा नहीं है कि और लोग भाषा को दृष्टि में रखकर लिख नहीं रहे, लेकिन राहुल अवस्थी का रुतबा भाषा के सफ़ारी वर्ल्ड में ऐसा लगता है, मानो वे वहां के गाइड और प्राणिजगत् के ट्रेनर हों। इस रचनाकार को इस दृष्टि से स्पेशली संज्ञान में लिया जाना चाहिए और लेना पड़ेगा।
राहुलजी एक ओर जहां व्यक्तिनिष्ठ कविताओं से मर्म को छूते हैं, मानस को स्पर्श करते हैं, आत्मा में उतरते हैं, वहीं वे विषयनिष्ठ रचनाओं से झंझा-झकोर गर्जन करते हैं, हहराते हुए बरसते हैं और जागरण का ज्वार उठाते हैं। न जाने कितनी कविताएँ उनकी इसी विषय से संबंधित मिलेंगी। उनका मूल स्वर मूलतः यही है। वे नित नूतन जनवादी कविताएं लिखकर जहां व्यवस्था के विद्रूप को आपके सामने लाते हैं, तो वहीं वह विशुद्ध राष्ट्रवादी रचनाओं से राष्ट्रीय अस्मिता के प्रबोधन का कार्य भी करते हैं। राहुलजी के कृतित्व में आपको अदम और दिनकर एक साथ देखने को मिल सकते हैं –
भूमि-सुधारों के आंगन में मौत बिछाये जाती हो
खेतों में, खलिहानों में अंगार उगाये जाती हो
मजदूरों की अन्तड़ियां-हड्डियां चबाये जाती हो
महँगाई की डायन बोटी-बोटी खाये जाती हो
कष्टों से छुटकारे का नुस्ख़ा नायाब न मिलता हो
सत्ता की आंखों में कोई सच्चा ख़्वाब न मिलता हो
क्या खोया, क्या पाया, इसका ठीक हिसाब न मिलता हो
उठते हुए सवालों का जब सही जवाब न मिलता हो
तक कोई अदना-सा आकर हर जवाब लिख देता है
पत्थरदिल दिल्ली के मुंह पर इंकलाब लिख देता है
(हमें तुम गुनगुनाओगे : गीत संग्रह)
उनकी प्रायः कविताएं पद्यात्मक प्रबोधन हैं, साहित्यिक संभाषण हैं या लयात्मक संवाद हैं।अदम्य ओजपूर्ण और उग्र काव्यात्मकता उनकी अपनी पेटेण्ट और परंपरागत शैली है, पर इससे इतर उनका अपना एक और खरा लहज़ा है, जिसकी लज़्ज़त एक बार मुंह को लग गयी तो छूटती नहीं। उनकी कविताओं से यह बराबर सिद्ध होता है कि रस भी क्या चीज़ है साहब! वे रस को लेकर ख़ूब जागरूक रहते हैं। हास्य में व्यंग्य की छौंक-बघार उनकी ग़ज़ब ही है –
आँखों मे डोरे तिर आये, ऐसी साज-सँवार ग़ज़ब है
चटखारों में लार गिरा दी, ऐसी छौंक-बघार ग़ज़ब है
खेत-खेत में ऊसर बोया, मेढ़-मेढ़ पर नागफनी को
खलिहानों में भूख उगा दी, ऐसा भूमिसुधार ग़ज़ब है
कल पंद्रह अगस्त के जलसे में प्रायः दस लोग नहीं थे
आज शाम के फ़ैशन शो में इतनी भीड़ अपार, ग़ज़ब है
ले जाओे हम कुछ न कहेंगे, माटी में रक्खा ही क्या है
बलिदानी भूदान हुआ है, अपनी भी सरकार ग़ज़ब है
दस-दस क़ैदी चीख रहे थे – हमने मारा, हमने मारा
क़त्ल बिना ही इतने क़ातिल, अपना थानेदार ग़ज़ब है
इस रस और भाव से बिल्कुल विलोम उनकी एक रचना और आप लोगों को दिखाता हूँ, जिससे आप सहजता और सरलता से अंदाजा लगा सकेंगे कि मैं बार-बार उनके लिए जो शब्द ‘रेंज’ सुरूर की तरह प्रयोग कर रहा हूं, वह क्यों ज़रूरी है! राममंदिर आंदोलन से फूटी उनकी प्रथम पुष्ट पद्य रचना हो, जो अपने समय का आहत आईना आगत को दिखा रही हो या फिर संविधान की आत्मा के माध्यम से भारत के जनमानस से संवाद करती उनकी बीसों पृष्ठ की लंबी रचना, सारी रचनाएँ अनूठी हैं। कोई भी कविता क्यों न हो, ज़रा से में ही राहुलजी न जाने कितने भावक्षितिज छू निकलते हैं –
न तुम बदले, न हम बदले, वही तुम हो, वही हम हैं
मगर तुम अपनी और हम अपनी उम्मीदों पे क़ायम हैं
तुम्हारी अपनी कुछ ख़ुशियां, हमारी अपनी कुछ ख़ुशियां
तुम्हारे अपने कुछ ग़म हैं, हमारे अपने कुछ ग़म हैं
तुम्हें फागुन लुभाता है, हमें सावन बुलाता है
तुम्हारे अपने मौसम हैं, हमारे अपने मौसम हैं
डॉ. राहुल अवस्थी विशिष्ट भंगिमा के कवि हैं। एक बेसाख़्ता और बेबाक चीज़ और देखिए, जो राहुल अवस्थी का समझाने वाला और उन को समझने वाला स्वर है। उनकी अनेकानेक कविताएँ इन्ही फ़्लेवरों, तेवरों और स्वरों वाली हैं। अगर आप बेबाकी, बेलौसी और बेहिसी के स्वर के शौक़ीन हैं तो आपको राहुल अवस्थी को अवश्य पढ़ना चाहिए, आप निराश नहीं होंगे। सुनिए, क्या कह रहे हैं राहुल अवस्थी –
किसी की ज़िन्दगी के नाज़ पलकों पर उठाने की
अरे! दरकार क्या है रात-दिन आंसू बहाने की
दबे जाओ, कुचे जाओ, मरे जाओ, जिये जाओ
ज़रूरत क्या पड़ी है इस तरह वादा निभाने की
किसी से जीतने की सोच के कुछ ऐसा लगता है
कहीं आदत न पड़ जाये किसी से मात खाने की
कभी मुझसे मिलो भी तो सँभल कर ऐ जहाँ वालों
बुरी आदत है मेरी आज भी दिल में समाने की
मेरे मालिक! मुझे सीखों से अपनी रोक लेगा क्या
कहां आदत है अपनी आदतों से बाज आने की
ये दोनों रचनाएं बिल्कुल पृथक-पृथक फ़्लेवर लिए हुए हैं, लेकिन इनमें एक अन्तःसूत्रबद्धता कमाल की है। ऐसी तमाम रचनाएं राहुलजी ने की हैं। हाल ही में जो लोग उन्हें निरंतर फ़ेसबुक पर पढ़ते रहे हैं, उन्होंने उनकी रचनाधर्मिता के अलग-अलग रूप देखे ही होंगे। ये उदाहरण यह बताने के लिए काफ़ी हैं कि मंच के प्रपंच तोड़ने के लिए भी राहुलजी के पास मसाला कम नहीं। उन्हें जमना भी आता है, जमाना भी आता है और उखाड़ना भी आता है। आइए मैदान में –
फ़साने बीत जाते हैं, तराने बीत जाते हैं
सताने के, मनाने के बहाने बीत जाते हैं
उखड़ने में क़दम लगता नहीं है वक़्त कुछ भी, पर
ज़माने में जमाने में ज़माने बीत जाते हैं
अब इस ज़माने और जमाने को जिस ख़ूबसूरती के साथ राहुलजी ने प्रयोग किया है, वह स्वयं में अनूठा है। उनका ये मुक्तक उनकी सधुक्कड़ी और फक्कड़ी आमद की प्रयोगधर्मिता को प्रकट करने के लिए काफी है। इस तरह के अनेक आनुप्रासिक प्रयोग उनकी रचनाओं में यमकउत्पत्तियों और शब्दमैत्रियों के स्तर पर मिलते रहते हैं। मुझे लगता है कि कभी-कभी उनसे अधिक सरल और दोटूक टिप्पणी कर देना साधारणतः सरल नहीं होगा। उनकी ऐसी ही दो रचनाएँ और देखिए, आनंद आ जायेगा –
जो रस्ता है, वो रस्ता है, वो मंज़िल हो नहीं सकता
जो दरिया है, वो दरिया है, वो साहिल हो नहीं सकता
जो पाना है, वो पाना है, जो खोना है, वो खोना है
जो हासिल हो नहीं सकता, वो हासिल हो नहीं सकता
वो दुनियादार है, दुनिया के क़ाबिल होगा तो होगा
हमारी दीनदारी के मुक़ाबिल हो नहीं सकता
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ख़ुशी में ग़म सँजोना है, दिलों में दर्द बोना है
कभी रो करके हँसना है, कभी हँस करके रोना है
मोहब्बत की अजब तक़दीर है, समझो ज़रा समझो
जो मिल जाये तो मिट्टी है, जो खो जाये तो सोना है
नहीं होगा, नहीं होगा, नहीं होगा, न होना जो
वही होगा, वही होगा, वही होगा, जो होना है
उद्धरणीयता उनकी रचनाओं की विशेषता है। ऐसी सरल रचनाओं की न केवल पहुँच कमाल की होती है, वरन् पहुंचे हुए लोग ही ऐसी पहुंची हुई रचनाओं का कमाल कर पाते हैं। इस तरह के तमाम प्रयोग आपको राहुलजी की रचनाओं में मिलते हैं। उनके वाक्यनिर्माण के साथ उनके रदीफ़ और क़ाफ़िये भी ऐसे शब्दों वाले होते हैं, जो आपको उनसे पहले कहीं देखने को नहीं मिलेंगे – मज़े का माथा घुमा देते हैं कि देर तक चकराते रहो। एक उदाहरण पेश करता हूं –
यूं न देखा करो रूह कोई बावली-बावली हो न जाए
ज़िन्दगी गांव वाली शहर में जंगली-जंगली हो न जाए
छांह की धूप के आचमन से, चांदनी-भर नज़र की छुअन से
सूत-सी ऊन की एक लच्छी मलमली-मलमली हो न जाए
दर-ब-दर की न अनुभूति डर की, सोच क्या कुमुदिनी को भ्रमर की
इस तरह रंगतो-बू कमल की पाटली-पाटली हो न जाए
रास, मावस लिये ज्वार आये, बाद-मधुमास पतझार आये
चम्पई गेंदवों की बनावट गुड़हली-गुड़हली हो न जाये
राह सूरजमुखी की बनाये, रातरानी महोत्सव मनाये
महमहाती महक केवड़े की सन्दली-सन्दली हो न जाये
तोलना, बोलना-खिलखिलाना, नैन से हाथ रग-रग मिलाना
मेल के खेल की बाज़ियों में धांधली-धांधली हो न जाये
एक पनघट कहीं सज न उट्ठे, आग का राग ही बज न उट्ठे
बांसुरी-बांसुरी चाहतों की तोतली-तोतली हो न जाये
हाथ में बर्फ अंगार ले-ले, धार ठहरी न रफ्तार ले-ले
धड़कनों की कली खिल न जाये – बेकली बेकली हो न जाये
सिर्फ़ चिंगारियों की झड़ी हो, ओस की बूंद बस झड़ पड़ी हो
ताल के शांत जल में खलल-खल खलबली खलबली हो न जाये
(हमारे सामने आओ : गीत संग्रह)
यहां प्रयुक्त गुड़हली, तोतली, पाटली, जंगली जैसे शब्दों का युग्म शायद ही इससे पहले आपने कहीं किसी ग़ज़ल में प्रयोग होते देखा हो। मुझे लगता है मैंने उनके अज़ीज़, जदीद और लज़ीज़ होने की कुछ वज़हें आपके सामने रख दी हैं। इससे ज़्यादा भी रखी जा सकती हैं क्योंकि उनका लेखन इतना विस्तृत है कि अब उस पर शोध होने का क्रम प्रारंभ हो गया है। हिंदी प्रदेशों के वह जितने चहेते कवि हैं, उतना ही प्यार उन्हें बंगाल, आसाम, अरुणाचल और दक्षिण के राज्यों से मिला है। वह अपने कमाल के काव्यकौशल और अपनी शानदार-सुन्दर शब्दश्रृंखला के बल पर अपनी जगह बनाते हैं।
उनकी मनीषा चरणचापण के चक्कर में पड़ने वाली नहीं। चाटुकारिता न उनके चरित्र का हिस्सा है, न आचरण का, इसलिए वह श्रोताओं के प्रिय तो बन गये लेकिन संयोजकों और आयोजकों के नहीं। वह पैकेज और पैकेट का हिस्सा बनना नहीं जानते, ऐसी बात तो नहीं होगी, किन्तु वे बनना नहीं चाहते। वह मैजिक और मैसेज का हिस्सा हैं। वह मूलतः मौलिकता के चन्द्रमौलि हैं, कट-काॅपी-पेस्ट के रचनाकार नहीं। परम्परावादियों से उनकी छनी-बनी नहीं। वे परम्पराप्रवर्तक कवि हैं। वे ख़ुद को गुड, बेटर और बेस्ट करने की परंपरा वाले रचनाकार हैं। उन्होंने अपने विरुद्ध षड्यंत्रकारियों के माइक का भ्रम और लाइक का क्रम बख़ूबी तोड़ा है।
मैं राहुल अवस्थी के सम्बन्ध में सब कुछ अच्छा ही लिखता रहूं, तो आपको लगेगा कि मैं ऐसा उन्हें अपना अग्रज होने की वज़ह से बता रहा हूं, उन्हें नाहक बढ़ा रहा हूँ और वे पढ़ेंगे तो कहेंगे कि उन्हें चने के झाड़ पर चढ़ा रहा हूँ। नहीं, मैं ऐसा कभी नहीं करता। वैसे भी यह मेरे मिज़ाज़ के विपरीत ही होगा। मेरे अंदर सदैव एक पत्रकार जिंदा ही रहता है, जो समालोचना करने का आदी है। मुझे न केवल क़लम की ताक़त पता है, प्रत्युत अपने उत्तरदायित्व का अंदाज़ा भी बख़ूबी है। एक पत्रकार को कभी अपनी आलोचक छवि को नहीं तोड़ना चाहिए और न अपने आलोचनापथ से अलग चलना चाहिए। उसे अपने संकल्प पर अडिग रहना है।
मैं फिर कह रहा हूँ कि लाख अच्छाइयाँ सही, लेकिन डाॅ. राहुल अवस्थी की सबसे बड़ी कमी है अपने लेखन को बर्बाद करना। मतलब ऐसा बहुत कुछ है, जो उन्होंने कहीं सहेजा नहीं और किसी तरह वह नष्ट हो गया। कई बार तो उनकी रचनाएं दूसरे लोग चिपका देते हैं और वह कभी क्लेम नहीं करते। इसका उन्हें भरपूर नुकसान भी उठाना पड़ा है। अपने संपर्क में आए हुए रचनाशील युवाओं को वह तुरंत ही अवसर देने की चाह में रहते हैं। बरेली के ही अंदाज में कहूं तो वह जिन हाथों को छुड़कइया देते हैं, वही हाथ उनकी पतंग को सुत्तल से काटने की कोशिश में रहे हैं। ऐसा एक नहीं, कई दफ़ा हुआ है और हो ही रहा है। इसमें कमी भी कभी नहीं आनी क्योंकि वे ये सब समझने वाले नहीं।
वह काव्य को जितना प्रबंधित तरीके से रचते हैं, उतने ही अप्रबंधित तरीके से उसे रखते हैं। निश्चित रूप से उनकी विशुद्ध काव्य रचनाओं का कोई मोल नहीं। लेकिन मंच के व्यवहार में उन्होंने जो कुछ लिखा है, उसका मूल्य वह आंक नहीं पाए। उन्हें कठोरतापूर्वक प्रोफ़ेशनल हो जाना चाहिए, अन्यथा उन्हें तो हानि होगी ही, उनके अपनों को भी यह सब देख-देख कर निराशा होगी, नुकसान होगा। दुनिया कैसी है और क्या है, यह दुनिया के बारे में जानने और लिखने वाले को अपने लिये भी सोचना होगा।
उनकी भलमनसाहत ही उनकी सबसे बड़ी दुश्मन है। मैं ये भी जानता हूं कि यह जीवन भर उनके साथ रहेगी, क्योंकि उनके मन की उर्वरा भूमि कुटिलता पनपाने वाली नहीं हैं, लिहाज़ा सन्त्रास, संताप और दुख उनके जीवन में बना ही रहेगा; लेकिन प्रकृति ने दुखों को सहजता से ग्रहण करने और उन्हें भी सुविधा मान कर जीने का हुनर उन्हें दिया है, इसलिए वह राहुल हैं। राहुल यानी प्रकाश का आलंबन। जो अवगुणों को दूर रखे और दूर कराए, वह है राहुल। विश्व को नवीन सोच देने वाला, त्याग के साथ जीवन जीने वाला और युद्ध चाहने वालों को बुद्ध बनकर नई दिशा दिखाए, वह है राहुल। राहु को लय करने वाला, अर्थात् विष्णु है राहुल। दुनिया वालों! उनकी ओर से एक आश्वस्ति आप सब को आज एक विश्वास के साथ सौंपता हूँ –
अदब की बांसुरी के स्वर न ऐसे भूल पाओगे
हुनर की फ़िक्रमंदी में कहीं तो दिल लगाओगे
अभी तो साथ ही हम अभी तो सुन रहे हो बस
कभी जब हम न होंगे तो हमे तुम गुनगुनाओगे
(हमें तुम गुनगुनाओगे : गीत संग्रह)