जिस दिल में प्रेम नहीं उसे दिल न समझा जाए : नवाज़ देवबंदी
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- अभिनव 'अभिन्न'
- September 27, 2022
- रू-ब-रू
![](https://abhinavchauhan.in/wp-content/uploads/2022/10/chand-aham-ashar-by-dr-nawaz-deobandi-1.png)
ग़ज़ल सम्राट जगजीत सिंह की गायी ग़ज़ल ‘‘तेरे आने की जब खबर महके, तेरी खुश्बू से सारा घर महके’’ सुनते ही आप प्यार में डूब जाते हैं। प्यार की इस खुश्बू को हम तक पहुुंचाने वाले शख्स का नाम है – नवाज़ देवबंदी। सफेद कुर्ते, पायजामे और चप्पलों के साथ मुशायरे के मंचों पर दिखने वाले इस लंबे कद के शायर की शायरी भी उतनी ही ऊँची है। नवाज़ देवबंदी ने हमेशा अपने एक शेर को अपनी जिंदगी में उतारे रखा है – ‘‘ऐसी वैसी बातों से तो अच्छा है खामोश रहो, या फिर ऐसी बात कहो जो खामोशी से अच्छी हो।’’ अविलोम के ‘प्रेम विशेषांक’ के लिए उनसे बात की अभिनव ‘अभिन्न’ ने जिसमें उन्होंने प्रेम से लेकर अदबी इदारे में आ रहे बदलावों तक पर अपनी खामोशी को भूलकर और दिल खोलकर बात की। आइए पढ़ें उनके ख्यालात उन्हीं की जुबानी…
अभिनव : मेरा पहला सवाल आपसे प्रेम पर ही है। आपका एक मशहूर शेर है ‘‘जब हाथ में शीशा था, न सागर था न मीना, गर दिल नहीं टूटा तो फिर छन से गिरा क्या’’, ये जो ‘छन’ है ये क्या है? मोहब्बत में इस ‘छन’ के मायने क्या हैं?
नवाज़ देवबंदी : आप ने जो पूछा कि ये ‘छन’ क्या है, तो मैं इतना ही कहूंगा कि अगर शायरी की व्याख्या की जाए तो फिर वो शायरी नहीं है। शायरी तो वो है जो कुछ छिपी रह जाए। सुनने वाला तड़प जाए कि ये कह क्या दिया? अगर सुनने वाले के दिल पर हमारा ‘छन’ छप गया तो हमारी शायरी कामयाब है। जो जाहिर हो गया वो शायरी नहीं। मैं एक वाकया सुनाता हूँ। मेरा एक छोटा भाई है सुनील कुमार। उनकी याददाश्त बहुत तेज है। मैं अपने लिखे पहले शेर हमेशा उन्हें सुनाता हूँ जिससे अगर मैं भूल भी जाऊँ तो वो याद दिला दें। एक समय मुझसे एक शेर हुआ। अब सुनील जब भी मिलते तो यही पूछते – भाईजान उस मिसरे का अगला मिसरा हुआ। मैं बोल देता नहीं। इसके बाद कभी-कभी वो मुझसे मजाक करने लगे। एक बार वो मेरे घर आए। जब जा रहे थे और मैं उन्हें रुख्सत कर रहा था तो दरवाजा बंद करते हुए जब दो इंच का फालसा रह गया तो जो बात मैं डेढ़ साल से नहीं कह सका वो तब कही, मैंने कहा सुनील शेर सुन जाओ। तो मेरा शेर यूँ था –
‘’मेरे पैमाने में कुछ है, उसके पैमाने में कुछ
देख साकी हो न जाए तेरे मयखाने में कुछ’’
अब ये जो ‘कुछ’ है इसे अगर परिभाषित किया जाए तो तमाम व्याख्या के बाद भी इस कुछ को समझाने में ‘कुछ’ बाकी ही रह जाएगा। ये जो बाकी रह गया, यही शायरी है। आपने जिस गजल का ये शेर सुनाया है वो शेर मशहूर हुआ उससे ज्यादा उसकी ‘छन’ मशहूर हुई। शब्द की यही शक्ति है। इस गजल के अंदर और भी बहुत शेर हैं जो बहुत अच्छे हैं। लेकिन सबसे ज्यादा ये शेर मशहूर हुआ। लोग बहते हैं नवाज़ भाई, ‘छन’ वाला शेर सुना दीजिए।
सवाल : मोहब्बत में इस ‘छन’ को जीने वाले शायर की जिंदगी में मोहब्बत के मआनी क्या हैं? क्या इस ‘छन’ से कभी वो भी वाबस्ता हुए हैं?
जवाब : मोहब्बत एक ऐसा जज्बा है जिसे लफ़्ज़ों में बयान कर पाना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन है। अगर ये किसी दिल में मौजूद नहीं है तो उस दिल को दिल न समझा जाए। अगर इंसानियत की जरा सी भी चमक या रोशनी है तो वहाँ मोहब्बत जरूर होगी। हमारी दिक्कत ये है कि मोहब्बत जैसे इतने पाक जज्बे को आज के परिदृश्य ने, आज की पीढ़ी ने बहुत नापाक कर दिया है। लोग सिर्फ जिस्मानी ताल्लुक़ात को मोहब्बत समझते हैं। मोहब्बत इसका नाम नहीं है, मोहब्बत रूह से रूह के रिश्ते का नाम है। अन्तरात्मा से अन्तरात्मा के रिश्ते का नाम है। मोहब्बत बहुत लाजवाल, लाजवाब है।
रही बात ‘छन’ कहने की तो बगैर उस एहसास से गुजरे हुए ऐसा हो पाना मुश्किल तो है, लेकिन नामुमकिन नहीं। दुनिया की शायरी जब शायरी होती है जो जरूरी नहीं है कि उसे जीया भी जाए। शराब पर शेर कहने के लिए जरूरी नहीं शराब पीकर ही बैठा जाए। हम कभी किसी को सुनकर शेर कहते हैं, हम कभी किसी को पढ़कर शेर कहते हैं। हम कभी किसी के तजुर्बे से शेर कहते हैं। आप जिस तरफ इशारा कर रहे हैं, तो मैं यही कहूंगा कि ख़ुदा ने मुझे इस बात से महफूज रखा है।
सवाल : मुशायरे के मंचों की एक लंबी जिंदगी आपने जी है, कैसा सम्मान यहां आपको मिला, कितना मुतमइन है आप मंच की इस जिंदगी से? क्या अब भी ये मंच वैसे ही बने हुए हैं जैसे कि आपके शुरूआती दौर में थे?
जवाब : मुझे यहां बहुत सम्मान मिला, यूँ कहें कि जितना सम्मान मुझे इस दुनिया में मिला उतना कहीं और नहीं मिल सकता था। खुदा ने मुझे कैसा सम्मान दिया है आप सुनकर हैरत करेंगे। दुनिया के हर बड़े शायर के साथ मैंने मंच साझा किया। दुनिया के जो बड़े लोग, बड़े शायर हैं वो मेरे छोटा होने के बावजूद मेरे सामने शराब नहीं पीते। अगर कभी महौल बनता भी है तो वो या तो वहाँ से हट जाते हैं या फिर मुझसे गुजारिश करते हैं कि नवाज भाई आप आराम कर लीजिए। ये जो सम्मान मुझे यहाँ मिला है। वो कहीं और नहीं मिल सकता था। ये सम्मान बहुत कम लोगों को मिलता है। और मुझे मिला है ये मेरी खुशनसीबी है।
सवाल : क्या मंच की जिंदगी और एक शायर की असल जिंदगी में कोई अंतर होता है? क्या आपनी जिंदगी में वो समानता है?
जवाब : मैंने जो जीवन जीया है वो बहुत सादा है। हाल में एक किताब आई है ‘ज़र्रानवाज़ी’। उसमें सौ से ज्यादा लोगों ने मेरे बारे में लेख लिखे हैं। उसमें वसीम बरेलवी साहब ने एक बात लिखी है – ‘‘नवाज़ ने बिगड़ने की उम्र में संभलने का हुनर सीख लिया है।’’ मैं अक्सर देखता हूँ कि हम शायरी कुछ और करते हैं और जिंदगी कुछ और जीते हैं। ये विरोधाभास बहुत दुख देता है। मैं चाहता हूँ और कोशिश करता हूँ कि जो शायरी करता हूँ वही जिंदगी जीयूँ या जो जीता हूँ वहीं शायरी करूँ।
सवाल : आप ग़ज़ल का एक मकबूल नाम हैं, क्या वजह है कि शायरी करने वाला हर शख्स ग़ज़ल से इश्क़ को अलग नहीं कर सका। अच्छी और ज़रूरी तरक्की पसंद शायरी के मुक़ाबले कोई शायर अगर इश्क़ की शायरी करे तो वो ज्यादा मशहूर होती है?
जवाब : ग़ज़ल अपने दामन में बहुत कुछ समेटे है। वो चाहें मीर हों, गालिब हों, फिराक हों, जोश हों, जिगर हों, कोई भी हो, सबने ग़ज़ल कही। ग़ज़ल बहुत विस्तार लिए हुए हैं। ज़िन्दगी के हर रंग को गजल ने समेटा है, लेकिन उसका बुनियादी रंग रूमानी है। हालांकि हम जब तक मंचों पर आए तब तक उसमें प्रगतिवादी शायरी आ गई थी। फिर भी रूमानियत उससे अगल न हो सकी। लोग उसे ही पसंद करते थे। रोमांस एक ऐसा जज्बा है कि कोई भी उम्र हो, कोई भी सोच हो वो हमेशा ज़िन्दा रहता है। लेकिन लोग इस जज्बे हो अपनी-अपनी तरह जीते हैं। मोहब्बत किससे करनी है, कब करनी है, किस तरह करनी है, कैसे करनी है, कब तलक़ करनी है। ये सब कई बाते हैं जो लोग अपनी तरह तय करते हैं। मोहब्बत की शायरी उस वक्त भी हो रही थी जब हम स्टेज पर आए। लेकिन तब मंचों पर बड़ों का सम्मान जिंदा था। उस वक्त मोहब्बत को बहुत छिपाकर कहा जाता था, इशारों में, अब उसे खुलकर कहा जाता है। शब्दावली आज के समाज के हिसाब की हुई है। लेकिन मोहब्बत ग़ज़ल में अब भी ज़िन्दा है, असल में वही उसका क़िरदार है। किसी खूबसूरत और अच्छे मकान के लिए नक्शा बहुत जरूरी है, ऐसे ही ग़ज़ल है। ग़ज़ल का जो बुनियादी नक्शा है वो मोहब्बत है, इसी पर तामीर खड़ी होती है। ग़ज़ल ने अब हर पहलू को छुआ है लेकिन मोहब्बत क़ुदरती जज्बा है। इंसान के विंडो में जो इनबिल्ड सॉफ्टवेयर है वो इश्क ही है, प्रेम ही है। इसलिए वो कहीं जा नहीं सकता।
सवाल : आपके दौर में, और इस दौर में मंचों के आदाब में कितना अंतर देख पाते हैं? क्या आपको इस बदलाव से कोई गिला होता है?
जवाब : हम तो आए ही ऐसे परिवेश और परिवार से थे जहाँ हमारी तरबियत कुछ ऐसे हुई कि हम कभी अपने बड़े भाई के सिरहाने भी नहीं बैठे। मेरा एक शेर है:
“गो वक्त ने ऐसे भी मवाके हमें बख्शे
हम फिर भी बुजुर्गों के सिरहाने नहीं बैठे”
जब हम कभी बड़ों के सिरहाने नहीं बैठे तो हम मंच पर भी पिछली पंक्ति में ही बैठना पसंद करते थें। मगर एक बात ध्यान रखिए कि अगर बड़ों के पीछे बैठना सीख जाओगे तो क़ुदरत और वक्त आपको पहली पंक्ति में लाकर खड़ा कर देगा। अगर आप बड़ों के सामने झुकना सीख लेेंगे तो तकदीर आपको आसमान तक ऊँचा उठा देगी। लेकिन बदनसीबी ये है कि नई पीढ़ियां इस तरबियत के साथ मंच पर नहीं आ रही हैं। ये मंच जो है ये एक साधना है, एक इबादतगाह है, पूजास्थल है। यहाँ के कुछ नियम हैं, यहाँ सब चीजें तय हैं, किस तरह आना है, किस तरह जाना है, ये जब सीख लेंगे तभी आप इतिहास के पन्नों में जी सकते हैं। वरना तो मुशायरे-कवि सम्मेलन के मंच की जिंदगी एक रात की होती है। मंच से आप कितनी भी तालियाँ बजवा लें, शोहरत बटोर लें, लेकिन इतिहास के पन्ने उस शोहरत, उन तालियों के लिए नहीं होते वो शायरी के लिए होते हैं। तो शायरी के इतिहास के पन्नों में कोई अपना नाम दर्ज करना चाहे तो उसे शायरी के साथ-साथ ज़िन्दगी के आदाब भी सीखने पड़ेंगे और बड़ों के पीछे बैठने के आदाब भी सीखने पड़ेंगे।
सवाल : क्या आप मानते हैं कि अब शायरी का स्तर गिरा है?
जवाब : इसमें दो बदनसीबी हैं कि समाज ने, श्रोताओं ने इसे मान्यता दी और नए शायरों ने भी इसे अपना ट्रेंड बना लिया। लेकिन जैसे मैंने कहा आपको अगर इतिहास का हिस्सा बनना है तो आपको अदाकारी नहीं, फ़नकारी सीखनी पड़ेगी। फ़न ज़िन्दा रहता है, फ़नकार ज़िन्दा रहता है। इसलिए जरूरी है कि हम मंच पर वो ज़िन्दगी जीयें जिसकी अदब को जरूरत है, जिसकी संस्कृति को, साहित्य को जरूरत है।
सवाल : अब संचार के माध्यम बदल गए हैं। इंस्टाग्राम, फेसबुक के लाइक और व्यू से नई पीढ़ी किसी शायरी की दीवानी होती है, उसे सुनती है और उसे बड़ा शायर मानती है। क्या ऐसे में जो बड़े शायर हैं, बड़ी शायरी है उनके लिए कोई दिक्कत नहीं आएगी?
जवाब : मुशायरे या कवि सम्मेलन में भीड़ किसी आदमी को रिक्गनाइज कर रही है तो इसका मतलब ये नहीं कि वो बड़ी शायरी है। उस भीड़ में चंद लोग हैं जो अच्छी शायरी को मान्यता देते हैं। भीड़ किसी शायरी के बड़े होने का पैमाना नहीं है, उस शायरी का अगली पीढ़ी तक पहुंचना उसका बड़ा होना है। ऐसे ही इंस्टाग्राम, फेसबुक पर ज्यादा लाइक किसे मिल रहे हैं उससे ज्यादा ये देखना पड़ेगा कि उस लाइक को देने वाले लोग, वो भीड़ कैसी है, उसका स्तर क्या है? जब हम मुशायरे में होते हैं तो एक पढ़े लिखे आदमी की निगाह में भी हमारा शेर ज़िन्दा रह जाए तो वो हमारी कामयाबी है। शायर की ज़िन्दगी में एक शेर भी ज़िन्दा हो जाए तो उसकी खुशनसीबी है। मेरी खुशनसीबी है कि एक नहीं एक अच्छी खासी संख्या उन शेरों की है जिसे आम लोगों ने भी गुनगुनाया तो इस दौर के सबसे बड़े कथावाचक मुरारी बापू ने भी अपनी कथा में कोट किया। मुझे हिन्दुस्तान के ग़ज़ल सम्राट जगजीत सिंह ने भी गाया है। ये मेरी खुशनसीबी है कि मुझे ये प्यार मिला।
सवाल : कई बार कोई शेर इतनी शोहरत बटोर लेता है कि शायर को लोग भूल जाते हैं, आपके शेर फिल्मों तब पहुंचे, लेकिन आपने फिल्मों से हमेशा दूरी क्यों बनाए रखी?
जवाब : ज़रूरी नहीं कि शायर का नाम भी लोगों को याद हो, हालांकि ये शायर के साथ ज्यादती है। लेकिन उसका शेर ज़िन्दा रहता है ये उसकी खुशनसीबी है। मेरे तमाम शेर ऐसे हैं जो तमाम जगह कोट किए गए और मेरा नाम भी नहीं लिया गया। जिन्हें याद है वो लेते हैं। मेरा एक शेर है जो तमाम मोटिवेशनल स्पीकर पढ़ते हैं –
“अंजाम उसके हाथ है आगाज़ करके देख
भीगे हुए परों से ही परवाज़ करके देख”
इसके अलावा एक शेर और देखिए –
“जलते घरों को देखने वालो फूँस का छप्पर आपका है
आग के पीछे तेज़ हवा है, आगे मुक़द्दर आपका है
उसके क़त्ल पे मैं भी चुप था, मेरा नंबर अब आया
मेरे क़त्ल पे आप भी चुप हैं, अगला नंबर आपका है”
इस शेर ने तो कोट होने के मामले में रिकॉर्ड तोड़े हैं। तमाम बड़े लेखकों, संचालकों, राजनेताओं ने इसे कोट किया। हाल तो ये है एक फिल्म आई थी ‘इरादा’ जिसमें शुरूआत ही फिल्म की इस शेर के साथ होती है। फिल्मी दुनिया से मेरा तआल्लुक बहुत ज्यादा नहीं है। फिल्मी दुनिया में जिस जमाने में शायरी होती थी उस जमाने में हम नहीं थे, अब जिस जमाने में हम हैं तो फिल्मी दुनिया में शायरी नहीं होती। पहले जो फिल्म बनाते थे वो शायरी जानते हैं। आज तो जो शायरी फिल्मों में सुनने को मिलती है उस पर कभी-कभी शर्मिंदगी होती है कि क्या यही शायरी है।
डेढ़ इश्कियां में विशाल भारद्वाज ने जब दावत दी तो मैंने तमाम शर्तें रख दीं। मैंने कहा कि हम अपना ना तो ड्रेस कोड बदलेंगे, न तो किसी दूसरे शायर का शेर पढ़ेंगे और न ही किसी दूसरे नाम से आएंगे। उन्होंने सब मंजूर किया तो हमने हाँ की। सच्चाई ये है कि फिल्मी दुनिया में अब शायरी पसंद लोग नहीं है। बाकी तो ये है कि शोहरत कितनी चाहिए। सात समंदर पार तक हो आए, अब तो बस ऊपर वाले के यहां जाना बचा है, वहाँ सबको जाना है। यही हक़ीक़त है।
सवाल : ईश्वर आपकी उम्रदराज़ करे। लेकिन क्या आप मानते हैं कि नई पीढ़ियों ने अब पुराने शायरों को भुलाना शुरू कर दिया है। नए नाम जो इंस्टाग्राम से मशहूर हो रहे हैं वो नए सुनने वालों के ज़हन पर हावी हो गए हैं?
जवाब : आप एक बात समझ लें कि इत्र की खुशबू जो है वो परफ्यूम यानी जो कृत्रिम खुशबू है उससे कभी दबायी नहीं जा सकती। इसलिए कागज के फूलों की महक का सफर बहुत थोड़ी दूर तक हो सकता है, लेकिन असली फूलों के सूखने के बाद भी महक बनी रहती है। रही बात नए आने वालों कि तो अगर नई पीढ़ी शायरी करेगी तो वो जिंदा रहेगी, अगर वो शायरी बड़ी नहीं होगी तो तालियां कितनी बटोर ले, भीड़ को कितना दीवाना बना लें। लेकिन वो शायरी मर जाएगी। सोशल मीडिया आपको जल्दी शोहरत देती है। एक जमाना था जब रेडियो पर हमारा टेलीकास्ट आता था तो अखबार में खबर छपती थी और हम उस कटिंग को काटकर रखते थे और दोस्तों को दिखाते थे। फिर जमाना बदला और 1976 में हमारा पहली बार दूरदर्शन पर प्रोग्राम आया तो पूरे मोहल्ले के लोगों ने टीवी का इंतज़ाम किया। अब हालात और बदल गए, सोशल मीडिया, यूट्यूब, इंस्टाग्राम तमाम आ गए। लेकिन यदि शायरी होगी तभी वो ज़िन्दा रहेगी, चाहें माध्यम कोई भी हो। इसलिए आपको ज़िन्दा रहने के लिए, इतिहास बनने के लिए तो शायरी की करनी पड़ेगी।
सवाल : उर्दू शायरी पर फ़ारसी और अरबी का प्रभाव ज्यादा है। आज भी कई नए शायर भारी-भरकम शब्दों के साथ शायरी करके खुद को दानिश्वर दिखलाना चाहते हैं, सादा ज़ुबान शायरी में और भारी शब्दों के साथ की गई शायरी में आप किसे जरूरी मानते हैं?
जवाब : हर ज़माने में कुछ ज़ुबाने हावी रहती हैं। आपका इशारा जिस तरफ है उस ज़माने में फ़ारसी बोली जाती थी, पढ़ी जाती थी, लिखी जाती थी। शासन की भाषा फ़ारसी थी। लिहाजा शायरी भी उससे अछूती नहीं रही। लेकिन आज भी समाज में वही शेर ज़िन्दा हैं जो आसान भाषा में कहे गए हैं। आज भी आसान भाषा में की गई शायरी ज़िन्दा है। लेकिन आसान शायरी करने के चक्कर में हमें अपना शब्दकोश खत्म नहीं कर देना चाहिए। भाषा की जो जरूरत है उस शब्द को प्रयोग किया जाए। जो शब्द बहाव के साथ आते हैं, स्वभाव के साथ आते हैं उन्हेें प्रयोग कर लेना चाहिए। दवाब के साथ प्रयोग किए गए शब्द शायरी को मक़बूल नहीं बनाते। हाँ आप भारी शब्दों को कम प्रयोग करें, लेकिन मैं ये भी नहीं कहूँगा कि अच्छे शब्दों का प्रयोग इसलिए न करें कि उन्हेें समझने में किसी को शब्दकोश तलाशना पड़ेगा। ऐसे भाषा मर जाएगी। शायरी की पहली शर्त है कि वो खूबसूरत शब्दों से सजी हो, कम शब्दों में बहुत कुछ कहती हो, ये ज़रूरी है।
सवाल : नई पीढ़ी ऐसी शब्दावली के साथ शायरी कर रही है जिनका रोजमर्रा की जिंदगी में प्रयोग ही नहीं होता। कई शायरों की ग़ज़लों के तो हर शेर को समझने के लिए शब्दकोश लेकर बैठना पड़ता है। क्या ऐसी शायरी मशहूर हो पाएगी?
जवाब : वजह है कि नई पीढ़ी मीर को, गालिब को, फिराक़ को, चकबस्त को पढ़कर आ रही है, तो शब्दावली भी तो वहीं से ला रहे हैं। तो ये तो हमारे लिए अच्छी बात है कि वो आम भाषा में भी शायरी कर रहे हैं और पुरानी साहित्यिक भाषा में भी। हालांकि आसान भाषा में की गई शायरी हर दौर में पसंद की जाती है। लेकिन मैं फिर कहता हूं कि इस वजह से आप अच्छे शब्द, अच्छी भाषा, अच्छी शायरी को छोड़ नहीं सकते। मेरे भी तमाम शेरों में ऐसे शब्द हैं जिन्हें आप भारी कहेंगे लेकिन वो उस शेर की ज़रूरत है। कई बार ऐसा होता है कि मिसरे को या शेर को सोचते समय, लिखते समय पहली बार जो लफ्ज़ आ जाता है वही रहता है। वो शब्द कहता है कि मैं ही हूँ। जैसे पहली मोहब्बत को आप कभी भुला नहीं सकते, शब्द भी ऐसा ही है। आप लाख सोच लें लेकिन उसकी जगह कोई ले नहीं सकता। उसी से शेर कहना पड़ता है।
सवाल : नए संचार माध्यमों ने पत्रिकाओं, किताबों की बिक्री कम कर दी है। अब लोग किताबें नहीं पढ़ते। आप इनका क्या भविष्य देखते हैं, क्या किताबे खत्म हो जाएंगी या आप इस मामले में आशावादी हैं कि उनका दौर फिर से लौटेगा?
जवाब : ये बहुत छोटा सा कालखण्ड है, सच्चाई कभी दफ़न नहीं हो सकती, हक़ीक़त कभी मर नहीं सकती। जिस तरफ आपका इशारा है उसकी उम्र बहुत ज्यादा नहीं। एक जमाने में खत आया करते थे, आज मैसेज आता है। मैं समझता हूँ कि उस खत के आने में और मैसेज के आने में जमीन-आसमान का अन्तर है। खत कई बार पढ़ा जाता था। हर बार नया मजा देता था। सोशल मीडिया का फैलाव तो बहुत है, लेकिन उसकी उम्र बहुत कम है। किताब दूर तक भले ही न जाए लेकिन देर तक रहती है। सोशल मीडिया पर भी वही आएगा जो किताब में होगा। एक बात और कहता हूँ कि किताब अपने पढ़ने वालो को पहचान लेती है। कई बार ऐसा होता है कि नासमझ पाठक के सामने तो किताब खुलती ही नहीं, खुद को समेट लेती है। बीस-बीस बार पढ़ता है कोई लेकिन समझ नहीं पाता। अगर कोई दिलवाला पढ़ने लगता है, मोहब्बत करने वाला पढ़ता है तो किताब खुद को खोल कर रख देती है। पन्ने पलटिए और एक बार मेें समझ आ जाती है।
सवाल : अब रिसाले या पत्रिकाएं कम हो गईं हैं, क्या उन पर संकट है, उनका भविष्य नहीं रहा?
जवाब : सोशल मीडिया में आसानी बहुत है। छापना बहुत मुश्किल है। पत्रिकाएं छापने में बहुत वक्त लगता है, मेहनत और पैसे का काम है। मुझे लगता है कि वक्त बदला है तो अब ई-मैगजीन रहेंगी। लेकिन भाषा को बचाना है तो आपको लिपि को बचाना पडे़गा। आपको लिखना पड़ेगा, पढ़ना पड़ेगा। सुनने वालों ने कभी भाषा को नहीं बचाया, उसकी लिपि ने बचाया। सोशल मीडिया पर तो हम लाइक की जगह अंगूठा दिखा देते हैं, आई लव यू लिखने की जगह दिल बना देते हैं। ये हमारी भाषा और लिपि को खत्म कर देगी। सोशल मीडिया की रफ्तार जरूरी है लेकिन किताब की ज़रूरत उससे कहीं ज्यादा है। लिपि भाषा की अंतरात्मा है और ये अंतरात्मा किताब में ज़िन्दा है। ज़ुबान को सुनने वाले नहीं, पढ़ने वाले बचा सकते हैं। हालांकि आजकल ये खतरा मंडरा रहा है कि पढ़ने वाले कम हो रहे हैं, सुनने वाले बहुत ज्यादा। जितना उच्चारण जरूरी है, उतनी ही उसकी वर्तनी जरूरी है। आप साफ बोलेंगे तो साफ लिखेंगे और सही लिखेंगे तो सही बोल पाएंगे।
सवाल : आखिरी सवाल, भाषा को लेकर अक्सर हम धड़े बना लेते हैं, एक जैसी भाषा बोलने वाले अगल सम्प्रदाय के लोग भी ज्यादा करीब होते हैं, जबकि दूसरी भाषा वाले दूर। इंसानों को करीब लाने के लिए भाषा को आप किस ‘टूल’ के रूप में देखते हैं?
जवाब : भाषा अकेला ऐसा माध्यम है जो इंसानों को करीब ला सकता है। भाषाएं संस्कृतियों को समझने का सबसे आसान माध्यम हैं। हर ज़ुबान का अपना साहित्य है, खज़ाना है, धरोहर है। जब मैं उर्दू अकादमी का चेयरमैन था तो मैंने रेजोल्यूशन पास किया था कि एक अनुवाद भवन बनना चाहिए। जिसका मक़सद था कि दो भाषाओं के रिश्ते मजबूत होने चाहिए। हिंदी वाले क्या सोचते हैं, उर्दू वाले क्या सोचते हैं, दूसरी भाषा वाले क्या सोचते हैं? इससे हमारे साहित्यिक और सामाजिक दोनों लाभ थे। इसके साथ मान्यताओं का आदान-प्रदान होता है, सोच का आदान-प्रदान होता है। समाज को बचाने का एकमात्र माध्यम है भाषा। अगर दुनिया को कोई बचा सकता है तो भाषा बचा सकती हैं। उनका आपसी प्यार बचा सकता है। हमें भाषाएं सीखनी चाहिए। और फिर वहीं लौटकर आता हूँ जहाँ से शुरू किया था कि प्रेम करना है, मोहब्बत करनी है, इंसानों को बचाना है तो भाषा को बचाइए, ये प्यार सिखाती हैं और प्यार ही इस दुनिया की सबसे खूबसूरत चीज है जो इस पूरी क़ायनात को बचा सकता है। मेरी बहुत बधाई इस प्रेम विशेषांक के लिए, दुआ है कि इस अंक के माध्यम से हम सबके बीच ये प्रेम जिंदा रहे और फलता फूलता रहे।
(बतौर सह सम्पादक अविलोम पत्रिका के अक्टूबर 2022 के प्रेम विशेषांक के लिए लिया गया साक्षात्कार)