रक्षाबंधन : दर्पण में परंपराओं के प्रतिबिंब दिखाता पर्व
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- अभिनव 'अभिन्न'
- August 3, 2020
- नज़रिया
भारतीय परंपराओं में पर्वों का बड़ा महत्वपूर्ण स्थान है। प्रत्येक पर्व के पीछे कोई न कोई उद्देश्य, कोई कारण है। हमारी पर्व परंपरा मुख्य रूप से प्रकृति आधारित है। सनातन धर्म का प्रत्येक पर्व किसी न किसी रूप में प्रकृति से प्रेरित है। इसके बाद उस पर्व के साथ अनेक कथाएं जुड़ीं और स्वरूप बदलता चला गया। फिर कालांतर हमने उसके मूल स्वरूप और कारण को खोजने का प्रयास भी नहीं किया। रक्षाबंधन के साथ भी ऐसा ही है। मुझे लगता है कि इस पर्व को हमने उसके मूल रूप में न देखकर उसके प्रतिबिंब को स्वीकार कर लिया है। लेकिन आपकी संस्कृति और पर्व परंपरा तभी तक जीवंत रह सकते हैं, जब तक उसमें शोध होता रहे। जड़ता किसी भी वस्तु को प्राचीन, असामयिक और अरुचिकर बना देती है।
श्रावण शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को मनाया जाने वाला पर्व रक्षाबंधन भी शायद अपने मूल स्वरूप से अब भिन्न हो गया है। मुझे लगता है कि हम वर्तमान में इस पर्व को जिस रूप में मनाते हैं वो इस पर्व का प्रतिबिंब है। मैं आदी हूं किसी विषय के होने के पीछे के कारणों को तलाश करने का। विशेष तौर पर हमारी पर्व परंपरा में, क्योंकि सृष्टि में सब कुछ वैज्ञानिक है। इसलिए हमें भी यह कोशिश करनी चाहिए कि जो कुछ वैज्ञानिक या तार्किक है उसे ही स्वीकार करें।
भारत में सबसे आसान है उसकी संस्कृति, रीति-रिवाज़ों पर प्रश्न खड़े करना। रक्षाबंधन के साथ भी पिछले कुछ समय से ऐसा ही हो रहा है। भौंड़ी विद्वता का परिचय कराने के लिए स्त्री विमर्श के कुछ शीर्ष नामों ने रक्षाबंधन पर प्रश्न खड़े किए। लेकिन प्रश्न खड़े करके उत्तर तलाश करने का प्रयास नहीं किया। तथाकथित फेमिनिज़्म के झंडाबरदार इन लोगों ने रक्षाबंधन और अन्य पर्वों को कटघरे में खड़ा करने की कोशिश की। दूसरी ओर उनके विपक्षी और इन पर्वों के समर्थन में उतरे अधकचरे ज्ञान वाले लोगों ने अनाप-शनाप तर्क प्रस्तुत किये। इस सबके बीच पर्वों का स्वरूप और उद्देश्य बदलता और खोता रहा।
रक्षाबंधन के पर्व को वर्तमान में भाई-बहन के प्रेम के प्रतीक, बहन की रक्षा के प्रण के पर्व के तौर पर मनाया जाता है। समाज में इस पर्व को लेकर यही आम धारणा है। बदलते परिवेश और विचारधारा में नई पीढ़ी ने ये भी माना कि भाई-बहन समान हैं और रक्षा जैसा कोई उद्देश्य नहीं है। आप केवल त्योहार मनाएं, उपहार दें, सेल्फ़ी लें, पोस्ट करें और रोज़ाना की भागदौड़ में जुट जाएं। स्त्रीवादी विचारकों ने सवाल ये खड़े करे कि क्या एक बहन कमजोर है जो भाई को उसकी रक्षा का वचन देना पड़ेगा? उसे क्यों हर साल ये आभास कराया जाता है कि भाई के बिना उसकी कोई रक्षा नहीं कर सकता? फिर इन सबमें मीडिया ने एक छौंक लगाया, देखिए इतने वर्षों से फलां हिंदू बहन, मुस्लिम भाई को बांध रही है राखी।
इन सबके बीच मैं विचार करता हूं कि क्या वाकई में विपरीत परंपराओं वाले दो मज़हब के मानने वाले लोग भाई-बहन रह सकते हैं। बिल्कुल नहीं, कभी न कभी तो उनमें हिंदू और मुस्लिम की भावना आएगी ही। वो ज़ाहिर न करें, अलग बात है, लेकिन आएगी तो जरूर। फिर रिश्ता निभ कैसे रहा है, तो रिश्ता निभता ऐसे है कि उस एक रिश्ते में आप मजहब को आड़े नहीं आने देते। आप सामने वाले को हिंदू नहीं मानते, मुस्लिम नहीं मानते, ईसाई नहीं मानते, आप केवल रिश्ते और उसमें शामिल प्रेम को ध्यान में रखकर पूरा जीवन उसे निभाते हैं। ये विपरीत मज़हब का तड़का तो मीडिया अपनी दुकानदारी के लिए लगाता है।
रक्षाबंधन के इतिहास पर बात करें तो पुराणों में इसका ज़िक्र मिलता हैं। वहां से इसका स्वरूप देखें तो यह भाई-बहन के प्रेम से ज्यादा पत्नी के अपने पति की रक्षा का पर्व दिखाई देता है। सबसे ज्यादा प्रचलित कथा राजा बलि से संबंधित हैं। असुरों के राजा बलि ने पाताल लोक में प्रार्थना की कि उनके ईष्ट भगवान विष्णु सदैव उनके सामने रहें। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने ऐसा किया भी। लेकिन माता लक्ष्मी इससे डर गईं। उन्होंने पाताल लोक में जाकर राजा बलि को एक सूत्र बांधा जिसके बदले ये वचन लिया कि वह अपने संकल्प को बदल दें और बहन होने के नाते उनके पति को उन्हें वापस कर दें। राजा बलि ने भ्रात धर्म का निर्वाह करते हुए अपनी मुंह बोली बहन माता लक्ष्मी को उनके पति लौटा दिए। संयोग से यह श्रावण पूर्णिमा का दिन था।
भविष्य पुराण में वर्णन मिलता है कि देव और दानवों में जब युद्ध शुरू हुआ तब दानव हावी होने लगे। राजा बलि ने अपने तप और धार्मिक कार्यों के बल पर इंद्र के सिंहासन पर अपना अधिकार प्रस्तुत किया। इन्द्र घबरा कर बृहस्पति के पास गये। वहां बैठी इन्द्र की पत्नी इंद्राणी सब सुन रही थी। इंद्राणी इससे भयभीत हो गईं। उन्होंने रेशम का धागा मन्त्रों की शक्ति से पवित्र और अभिमंत्रित करके देवगुरु बृहस्पति को दिया।
भविष्यपुराण के अनुसार इन्द्राणी द्वारा निर्मित रक्षासूत्र को देवगुरु बृहस्पति ने इन्द्र के हाथों बांधते हुए निम्नलिखित स्वस्तिवाचन किया (यह श्लोक रक्षाबन्धन का अभीष्ट मन्त्र है –
येन बद्धो बलिराजा दानवेन्द्रो महाबलः।
तेन त्वामपि बध्नामि रक्षे मा चल मा चल ॥
अर्थात: ‘‘जिस रक्षासूत्र से महान शक्तिशाली दानवेन्द्र राजा बलि को बाँधा गया था, उसी सूत्र से मैं तुझे बाँधता हूँ। हे रक्षे (राखी)! तुम अडिग रहना (तू अपने संकल्प से कभी भी विचलित न हो।)’’
संयोग से वह श्रावण पूर्णिमा का दिन था। लोगों का विश्वास है कि इन्द्र इस लड़ाई में इसी धागे की मन्त्र शक्ति से ही विजयी हुए थे। उसी दिन से श्रावण पूर्णिमा के दिन यह धागा बाँधने की प्रथा चली आ रही है। यह धागा धन, शक्ति, हर्ष और विजय देने में पूरी तरह समर्थ माना जाता है।
विष्णु पुराण के अनुसार इस दिन भगवान विष्णु ने हयग्रीव अवतार लेकर ब्रह्मा को दोबारा वेदों का ज्ञान दिया। इसलिए इस दिन विद्यारंभ की भी परंपरा है। यज्ञोपवीत इसी दिन बदले जाते हैं।
इतिहास के अनुसार, महाभारत के मध्य शीशुपाल वध के समय भगवान कृष्ण की उंगली कटने पर द्रौपदी के अपनी साड़ी के एक रेशमी भाग को फाड़कर बांधने के बाद भगवान कृष्ण जीवन भर उनकी रक्षा का संकल्प लेते हैं। इसके अलावा युद्ध में माता कुंती अपने पौत्र अभिमन्यु को रक्षासूत्र बांधती हैं। एक स्थान पर प्रसंग मिलता है कि युधिष्ठिर की सेना के सैनिक और योद्धा एक-दूसरे की रक्षा का संकल्प लेते हुए रक्षासूत्र बांधते हैं।
आधुनिक इतिहास में हुमायूं और रानी कर्णावती की कहानी सर्वाधिक प्रचलित है। इसके बाद से भारत में यह पर्व भाई के बहन की रक्षा के संकल्प के रूप में मनाया जाने लगा।
मैं पुराण से इतिहास तक इस पर्व के स्वरूप को बदलता देखता हूं। इतिहास को विजेता लिखते हैं। हुमायूं और रानी कर्णावती की कहानी कितनी सच है, मैं नहीं जानता, लेकिन राजस्थान की स्वाभिमानी परंपरा को समझते हुए इतना तो मान सकता हूं कि एक राजपूत रानी जौहर कर सकती है, लेकिन एक विपंथी आक्रांता से सहायता नहीं मांग सकती। इस कथा पर आज तक किसी ने सवाल भले ही न उठाए हों, लेकिन बचपन से मुझे इस पर संशय हैं। संभव है मैं ग़लत हूं। लेकिन विचार इस बिंदू पर भी किया जा सकता है।
पुराणों में इस पर्व के स्वरूप को देखूं तो अपने पति की रक्षा के लिए किसी स्त्री ने किसी परपुरुष को रक्षासूत्र बांधकर अपना भाई बनाया और अपने पति की रक्षा की। इस लिहाज़ से यह पर्व भाई-बहन से ज्यादा पति की रक्षा के पर्व के रूप में मनाया जाना चाहिए। ऐसे में यह स्त्री के कमज़ोर होने के स्थान पर यह बताता है कि पुरुष की रक्षा के लिए स्त्री का होना आवश्यक है। लोककथाओं में यह भी चलन है कि ब्राह्मणों ने इस पर्व पर क्षत्रियों को रक्षासूत्र बांधकर देश और समाज की रक्षा का वचन लिया। कालांतर में देखें तो मुस्लिम आक्रांताओं के भारत में आने पर भारतीय समाज भयभीत था। तमाम रजवाड़े और राज्य उनसे संघर्ष कर रहे थे। स्त्री को अपना मान समझने वाला भारतीय समाज उसे देवी की तरह पूजता था। उनकी विधर्मियों से रक्षा के लिए महिलाओं ने अपने भाइयों के रक्षासूत्र बांधे। भाइयों ने भी उनकी इज़्ज़त की रक्षा का संकल्प लिया। उसके बाद से यह पर्व भाई-बहन के प्यार और रक्षा की अवधारणा से जुड़ता है। इसमें यह सामने आता है कि रक्षाबंधन एक ही मां की जायी संतानों से ज्यादा मुंहबोले भाई-बहनों के रिश्ते का पर्व रहा है।
मैं इसके वैदिक वैज्ञानिक स्वरूप पर विचार करता हूं। प्रकृति के अनुसार श्रावण मास और उसके आगे-पीछे का एक मास आषाढ़ और भादों संक्रमण काल माने जाते हैं। बीमारियों का यहां सबसे ज्यादा प्रवास होता है। प्रकृति में किसानों की फसल से लेकर मनुष्य तक में रोग की संभावनाएं अधिक होती हैं। इसलिए इन मासों में अपनी और फसल की रक्षा की चिंता सर्वाधिक रहती है। अन्न की रक्षा से ही अपनी रक्षा संभव है। इस संक्रमण काल में ऋषि-मुनि भी अरण्य (जंगल) से नगर में आ जाते थे। वर्षोऋतु के कारण वह नगरों में भ्रमण कर धर्म की शिक्षा देते थे, वातावरण को संक्रमण मुक्त रखने के लिए यज्ञ किए जाते थे, इसमें औषधियों का प्रयोग किया जाता था। इसमें पारस्कर गृह सूत्र का प्रमाण है :-
अथातोSध्यायोपाकर्म। औषधिनां प्रादुर्भावे श्रावण्यां पौर्णमासस्यम्।।
इस पूरे संक्रमण काल के तीन मासों में श्रावण पूर्णिमा ऐसा दिन है जब यम तरंगे ब्रह्माण में सबसे अधिक वेग लिए होती हैं। इन तरंगों में आपस में घर्षण से वायुमंडल में तेजकणों की अधिकता होती है। यह तरंगे ऐसी तरंगों, जो प्रकृति को नुकसान पहुंचाती हैं, को नष्ट करके भूमि पर एक आच्छादन बनाती हैं जिससे भूमि कणों की रक्षा होती हैं। प्रकृति में फल, फूल, फसल पर लगने वाले रोगों को मारने के लिए यह तरंगे लाभकारी साबित होती हैं। रोगों से फसल की रक्षा होती हैं। मनुष्य के शरीर पर भी इन तरंगों का प्रभाव पड़ता है। इस दिन हल्दी, चंदन, केसर, सरसों और दूर्वा घास के लेप के साथ स्नान करने से शरीर में संक्रमण समाप्त होता हैं। हल्दी, केसर और दूर्वा घास जहां एंटी बैक्टीरियल, एंटी वायरल और एंटी माइक्रोबियल है, वहीं चंदन और सरसों के दाने शांत और तीक्ष्ण तत्वों के कारण शरीर के तापमान में संतुलन बनाने में लाभकारी हैं। इस तरह प्रकृति के तत्वों से मनुष्य की रक्षा होती हैं। संभवतः इन्हीं कारणों से श्रावण पूर्णिमा के दिन रक्षाबंधन को मनाया जाता हैं। इस रक्षाबंधन को कथा-कहानियों के आधार पर इस तरह से चलन में लाया गया कि लोग इसे अपनाएं। फिर यह परंपरा रक्षासूत्र में बदली और वर्तमान में इसका स्वरूप हम सबके सामने है। मैं इस बात को मानता हूं कि बहन की रक्षा के संकल्प लेने या भाई-बहन के प्रेम प्रतीक या स्त्रियों को कमजोर होने का आभास कराने का इस पर्व का कोई उद्देश्य नहीं हैं। इस पर्व का उद्देश्य रक्षा से है। हर पर्व देशकाल, परिस्थित और अपने समाज के अनुसार अपना स्वरूप विस्तार और परिवर्तित करता है। हमें संकीर्ण सोच से ऊपर उठकर इस पर्व को देखने की आवश्यकता है। इस समय हमें स्वयं को रोगों से, संक्रमण से, प्रकृति को प्रदूषण से, पशुओं को हत्या से, संस्कृति को विकृति से बचाने की, उसकी रक्षा करने की आवश्यकता है। भारतीयों को वसुधैव कुटुम्बकम की अपनी सनातन भावना के साथ पूरे मनुष्य समाज के लिए विचार करने की आवश्यकता है। इस पर्व के मूल उद्देश्य को समझें। कालांतर में जिस स्वरूप को इतिहास के दर्पण से प्रतिबिंब के रूप में देखते आए हैं। उसे फिर मूल रूप में बदले नज़रिये से देखें।
**आप सभी को रक्षाबंधन पर्व की शुभकामनाएँ।