आसान कहने के लिए आसान होना पड़ता है : मदन मोहन ‘दानिश’
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- अभिनव 'अभिन्न'
- November 10, 2022
- रू-ब-रू
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समकालीन उर्दू शायरी का एक महत्वपूर्ण नाम हैं मदन मोहन ‘दानिश’। ग्वालियर में आकाशवाणी के जिम्मेदार अधिकारी पद से सेवानिवृत्त हुए दानिश साहब करीब तीन दशक से अधिक समय से शायरी का जाना-माना नाम है। सादा मिजाज, सरल चेहरा और उससे भी सादा जुबान में शायरी, जो एक बार सुन ली जाए तो सीधे दिल में उतर जाए। लेकिन इतनी आसान भाषा में बात कहने का ये हुनर उन्हें यूँ ही नहीं आया। इसके लिए एक लम्बा अर्सा लगा है। उन्हीं के शेर से समझें तो :-
‘पत्थर पहले खुद को पत्थर करता है,
उसके बाद ही कुछ कारीगर करता है’
शायरी के ऐसे ही एक ‘दानिशवर’ करीगर से बात की अभिनव ‘अभिन्न’ ने शायरी और भाषा के तमाम बिन्दुओं पर।
अभिनव : शायरी की ओर आपका झुकाव कैसे हुआ? किस उम्र में आपने शायरी शुरू की?
मदन मोहन : ठीक-ठीक कहना तो थोड़ा कठिन है कि झुकाव किस उम्र में और कब हुआ। ये लगातार चलने वाली एक प्रक्रिया है। वक्त धीरे-धीरे हर व्यक्ति को अपने सांचे में ढालता है। कुछ चीजें नेपथ्य में चलती हैं, कुछ साथ-साथ क़दम से क़दम मिला कर चलती रहती हैं। वक्त के साथ उसे आकार मिलता रहता है। तब आपको लगता है कि ऐसा कुछ हो रहा है या ऐसा करना चाहिए। इस हवाले से अगर बात करें तो मेरी शुरूआती परवरिश उत्तर प्रदेश के सीमान्त जिले बलिया के गाँव में हुई। मेरी पढ़ाई लिखाई गाँव के ही विद्यालय में हुई। दादा जी प्रतिदिन नियम से दो संस्कृत के श्लोक याद कराते थे और उनका अर्थ बताते थे। शाम को सुबह के याद कराए हुए श्लोक सुनते थे और फिर लालटेन जलाकर मानस का सस्वर पाठ हमसे कराते थे और उनका अर्थ समझाते थे। ये जो क्रम है सुबह को संस्कृत के श्लोक याद करना, शाम को मानस पाठ करना और दिन में सूर,कबीर, रहीम का भी आपके कानों में किसी न किसी तरह आना जाना.. ये सब मेरे अंदर कुछ नया सा रस घोल रहे थे.. मुझमें कोई नया रसायन तैयार हो रहा था..कुछ अलग सा घटित हो रहा था… इसी क्रम में – जहाँ मेरी हाईस्कूल की पढ़ाई हुई… दूबे छपरा – वो गाँव हिन्दी साहित्य के शलाका पुरुष आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का जन्म स्थान था। तो वहाँ के पुस्तकालय को साहित्यिक रूप से बहुत समृद्ध होना ही था। धीरे-धीरे अन्दर तुलसी, भर्तहरि, कालिदास सभी जा रहे थे। शायद यहीं से मन में कविता उतरने लगी थी।
प्रश्न : आपने कब सोचा कि अब मुझे कविता कहनी चाहिए। किस उम्र में हुई आपसे पहली कविता?
उत्तर : ये अन्दर से कभी सोच नहीं आती है कि अब मैं तैयार हो गया हूँ, अब इसको किया जाए। स्वाभाविक रूप से चीज़ें होती जाती हैं..ऐसे प्रसंग बनते जाते हैं जो आपका हाथ पकड़ कर उस रास्ते पर ले जाते हैं। मैं हाईस्कूल में था… उत्तर प्रदेश में स्कूली स्तर पर जो सांस्कृतिक कार्यक्रम होते थे, उनमें एक कवि दरबार का कार्यक्रम भी होता था। उनमें हर बार मुझे तुलसीदास बनाया जाता था, गोस्वामी जी का किरदार निभाते हुए बहुत पुरस्कार जीते मैंने। इसके बाद कुछ बदलाव सा आया… कुछ तुकबंदियाँ होने लगीं जिन्हें कविता तो हरगिज़ नहीं कहा जा सकता.. ये क्रम चलता रहा और फिर कुछ ऐसा होने लगा जिसे जानकार लोग नवगीतनुमा कहने लगे। फिर दो पंक्तियों में बात कहने की शुरूआत हुई। दोहे कहे, शेर कहे लेकिन कुछ नहीं पता था कि क्या है, सब अनगढ़ था। कुछ व्यवस्थित नहीं था। बस धीरे-धीरे होता गया, और शायरी की तरफ मुड़ गया।
प्रश्न : शुद्ध हिन्दी परिवेश, वाचिक परम्परा का परिवार। ऐसे में ग़ज़ल जैसी विधा में रचना कहने का मन कैसे हुआ? गीत या चौपाई, दोहे आदि छन्द में कविता कहने का मन क्यों नहीं हुआ? जबकि बचपन में कविता वहीं से मिली?
उत्तर : दरअस्ल कविता जितनी महत्वपूर्ण है उतनी विधा नहीं । विधा बाई च्वाइस है कविता नहीं। हाईस्कूल के बाद मैं भोपाल आ गया था मामा जी के यहाँ रह कर आगे की पढ़ाई के लिए। दुष्यन्त का प्रभाव उन दिनों खूब था। धीरे-धीरे मैंने जब नवगीत लिखने शुरू किये तो उससे ज्यादा मुझे दो पंक्तियों में बात कहना अच्छा लगा। जब दो पंक्तियों को सराहना मिली तो ग़ज़ल की ओर रुझान हुआ। फिर धीरे-धीरे ग़ज़लें होने लगीं। अब मैंने इस विधा को चुना या इस विधा ने मुझे चुन लिया ये कहना कठिन है। मैं मानता हूँ कि बचपन में याद किए हुए संस्कृत के श्लोक, मानस का पाठ ये ऐसी दिनचर्या थी जिसने मेरे अन्दर कविता को गढ़ा। मैं महसूस करता हूँ कि मेरी शायरी में मेरी परम्परा से आई हुई बहुत सी बातें हैं।
प्रश्न : गैर उर्दू परिवेश से आने के बाद शायरी के मंचों पर स्वीकार्यता को लेकर कभी मन में संशय रहा कि यहाँ उर्दू वाले हिन्दी की सरल शब्दावली को स्वीकार करेंगे या नहीं?
उत्तर : हमारा जो समय था उसमें ये सम्भव नहीं था कि आप एकदम मंच पर आ जाएं। पहले आप गोष्ठियों में जाकर सुनें, फिर आपको वहाँ सुना जाए। बरसों बरस ये सिलसिला चलता रहे। आपकी परवरिश होती रहे। आपकी ज़बान,आपके लहजे और आपकी शख्सियत की इस्लाह होती रहे। अदब-आदाब किरदार में शामिल होता रहे .. ये एक सिलसिला था जिससे होकर आप निकलते थे। और ये मेरे साथ ही नहीं हुआ, सब ऐसे ही बढ़े हैं। वो सोशल मीडिया का दौर नहीं था। आपके शेर को सफर करने में समय लगता था। गोष्ठी से निकला शेर फैलने में समय लेता था। धीरे-धीरे आपकी स्वीकार्यता बनती थी। मैं जब अखिल भारतीय मंच पर पहुँचा तो उस मंच पर पहुँचने से पहले हमारे शेर गोष्ठियों से निकलकर स्थापित शायरों तक पहुँच चुके थे। तब उनकी मौजूदगी में राष्ट्रीय मंच पर पढ़ना आपकी स्वीकार्यता को बढ़ाता था। अब परिदृश्य बदला है। आज सोशल मीडिया ने अच्छा कहने वालों को एक मंच दिया है। अवसर की उपलब्धता बढ़ी है.. इसके अपने फ़ायदे भी हैं और नुक़सान भी। आपका मकसद अच्छा कहना है तो ये उपयोगी है, लेकिन लक्ष्य कुछ और है तो आप समझौता करते हैं… नुक़सान उठाते हैं। सोशल मीडिया आपको जितनी जल्दी प्रसिद्ध करता है उतनी ही जल्दी दूसरा आपको रिप्लेस करने के लिए पीछे खड़ा होता है। आप स्तर से समझौता करने लग जाते हैं।
प्रश्न : शायरी और कविता के मंचों पर क्या बदलाव महसूस करते हैं?
उत्तर : बदलाव हर क्षेत्र में आया है… कला के सभी मंचों के बारे में एक बात कह सकते हैं कि इनमें जितनी व्यावसायिकता आएगी उतने समझौते होंगे। आज अच्छी फिल्में भी बन रही हैं, खराब फिल्में भी बन रही हैं, अच्छा संगीत भी आ रहा है, बुरा संगीत भी आ रहा है। ऐसे ही अच्छी कविता भी आ रही है, अच्छी शायरी भी आ रही है और बहुत साधारण शायरी भी।अच्छी शायरी करने वाले नौजवानों की तादाद बढ़ी है ये बात उम्मीद जगाती है।
प्रश्न : अब कविता की शब्दावली और विषयवस्तु बदले हैं। कोई कुछ भी कह रहा है प्रसिद्ध हो जा रहा है, चर्चा में आ रहा है। सोशल मीडिया पर छाया हुआ है। इसमें कविता का कितना नुकसान है?
उत्तर : बिलकुल है। वजह तालियाँ हैं… त्वरित प्रसिद्धि की चाह है। समस्या ये है कि ये सब कुछ एक अच्छे शेर पर भी मिल सकता है लेकिन उसमें समय लगता है । और आज जल्दी बहुत है। जल्दी है तो समझौते हैं। कई बार एक अच्छा शेर प्रसिद्ध होने में बहुत वक्त लेता है, वो ठहराव के साथ बढ़ता है। ये कला कि हर शाखा के साथ है, उसकी एक गति होती है, भाषाओं की भी अपनी एक गति होती है। वह अपनी गति से प्रसिद्ध होती है। सोशल मीडिया ने इस पूरे परिदृश्य को बदल कर रख दिया है। जब आप रातों रात मशहूर होते हैं तो उसके नुकसान भी हैं। प्रसिद्धी के अपने खतरे होते हैं। उसकी कीमत चुकानी पड़ती है। प्रसिद्धी मिलना अलग बात है, लेकिन उसको सम्हाल पाना दूसरी। आपकी ज़िम्मेदारी बढ़ जाती है।
प्रश्न : आज हर दिन नए चेहरे प्रसिद्ध हो रहे हैं, अगले दिन गायब। कोई शेर कुछ दिनों तक रहता है फिर गायब हो जाता है। कवि और शायर सेलिब्रिटी की तरह प्रस्तुत करते हैं खुद को। क्या अब कविता के मंच ग्लैमरस हो गए हैं?
उत्तर : वायरल शब्द है एक, सोशल मीडिया के सम्बन्ध में ये शब्द आज से पाँच- सात साल पहले चलन में नहीं था। मैं मानता हूँ कि इसके माध्यम से कोई अच्छा शेर पूरी दुनिया में फैल गया अच्छी बात है। लेकिन ओवर एक्सपोज होना अच्छी बात नहीं है। उसके अपने नुकसान हैं। मेरा फिर कहना है कि कला हो या कविता हो या कोई भी क्षेत्र हो, सबकी एक गति है। जब वो उस गति से चलती है तो उसकी उम्र लंबी होती है। लेकिन जब आप तेज गति से चलते हैं तो उसकी उम्र कम होती है। वायरल शब्द के लाभ भी हैं, नुकसान भी हैं। आपके दो शेर वायरल हुए.. आप प्रसिद्ध हो गए.. लेकिन सम्हाल नहीं पाए तो ऐसी प्रसिद्धि ही आपको नुक़सान पहुँचाने लगती है। पुराने समय में एक शेर को पहुँचने में बरसों लग जाते थे। लोगों से लोगों तक पहुँचता था। अपनी गति से चलता था वो आज तक जिन्दा है। ऐसा नहीं है कि एक शेर आज वायरल हुआ और दो दिन बाद किसी की जुबान पर ही नहीं है। मोहम्मद अलवी हों, बशीर बद्र हों, निदा फाजली हों। सब अपने समय में प्रसिद्ध हुए और आज भी लोगों के माध्यम से उनके कहे शेर गश्त करते हैं। आज की धारणा है कि हमें सब कुछ चाहिए। इसे तो एक हद तक सही मान भी लिया जाए। लेकिन सब कुछ अभी चाहिए ये कैसे मुमकिन है। सोशल मीडिया ने इसकी तीव्रता और बढ़ा दी है। इसे मैं ठीक नहीं मानता।
प्रश्न : कभी एक विशेष समुदाय तक मुशायरों के मंच सीमित थे, अब गैर उर्दू बैकग्राउण्ड के शायर भी अच्छी तादाद में हैं, इसकी कोई विशेष वजह है?
उत्तर : ये हमेशा रहा है कभी कम कभी ज़ियादा। सवाल समुदाय विशेष का नहीं है सवाल भाषा का है। और भाषा सबकी होती है। इसमें कोई भेद नहीं है, रही तादाद बढ़ने की तो उसकी वजह है ग़ज़ल का अपना जादुई प्रभाव.. और सोशल मीडिया की चमक। ये चमक आपको आकर्षित करती है। एक अच्छी बात ये है कि अब ज़ियादातर युवा पढ़ लिखकर तैयारी के साथ आ रहे हैं। गजल की ओर झुकाव बढ़ा है। गीत एक ऐसी विधा है, उसे कहने के लिए धैर्य एक गहरी समझ एक अनुशासन चाहिए। लोग इससे बचते हैं। उन्होंने देखा कोई शायर एक शेर कहकर प्रसिद्ध हुआ तो वह भी कहने लगते हैं। शेर कहने में समय लगता है, ये कोई नूडल्स नहीं है कि दो मिनट में हो गया। लेकिन दो पंक्तियों में ही बात कहनी है इसका आकर्षण तो है। उन्हें कम सोचना है, कम पंक्तियां कहनी हैं इसलिए वो गीत या मुक्तक न कहकर शेर कहना चाहते हैं। शेर कोट करना भी आसान होता है, कई मंचों पर कोट होते हैं। इस विधागत खूबी की वजह से भी शेर कहने में युवाओं की रुचि बढ़ी है।
प्रश्न : अब कई युवा भारी भरकम शब्दों के साथ शायरी कर रहे हैं। जो शब्द व्यवहार में भी नहीं है उसे शायरी में रख रहे हैं। ये उनके लिए कितना सही या गलत है?
उत्तर : शेर कहने के लिए सबकी अपनी-अपनी एक दृष्टि है। बल्कि शेर कहने ही नहीं, जीवन को जीने के लिए सबकी अपनी-अपनी दृष्टि है। आप उसे कैसे कहना चाहते हैं ये अलग-अलग है। पहले भाषा जो मिलती थी वो गोष्ठियों से मिलती थी। घर आँगन गली चौबारों की भाषा । बोलचाल में बड़ी बात कैसे कही जाती है। ये सीखना और सिखाना अब खत्म हो गया है । हमारे साहित्य के जितने बड़े नाम हैं उन्होंने किसी दूसरी दुनिया की भाषा में बात नहीं की, हमारे लोक की भाषा, हमारे घर-आँगन की भाषा में बात कही। इन्होंने किसी शब्दकोश से भाषा को नहीं सीखा, उन्होंने उसी भाषा को प्रयोग किया जो समाज का अन्तिम छोर का व्यक्ति भी समझ सके। अब अगर कोई माने कि कविता के लिए, शायरी के लिए कोई विशेष भाषा होनी चाहिए, तो कहते रहें। फिर उनके लिए फिराक हैं। फिराक ने कहा है – ‘‘बड़ी कविता तरकारी बेचने की भाषा में की जाती है। लिटरेचर कहते हैं ब्रिलियंट इल्लिटरेसी को। मतलब जो ब्रिलियंट लिटरेचर होगा, वह जनता का साहित्य होगा। सिर्फ ब्रिलियंट लिटरेचर के मायने आप ऐसे शब्दों का यकजा कर देना न समझिए जो आम आदमी न समझता हो। ब्रिलियंट लिटरेचर और ग्रेट लिटरेचर वही है कि छोटे से बच्चे को जो लफ्ज मालूम हैं, उससे वो गीता लिखे। डिकेन्स की ग्रेटनेस ये थी जो बुढ़िया घरों में झाड़ू लगाती थी, उसे जब छुट्टी मिलती थी तो डिकेन्स को पढ़ती थी। वही प्रेमचंद हैं। वही सूरदास हैं।… हम लोग सिम्पल के मायने समझते हैं कि तुच्छ। ये आप जानिए कि डिफीकल्ट, पांडित्यपूर्ण वगैरह—वगैरह… ये शब्द मक्खी की हैसियत रखते हैं सिम्पिलीसिटी के आगे।’’
आपको हमारे लिए शेर कहना है तो हमारी ही भाषा में कहेंगे न, किसी ऐसी भाषा में तो नहीं, जिसे हम समझते ही न हों और कहते हैं तो कहिए, हम समझेंगे नहीं और आपका शेर खत्म हो जाएगा, चाहे कितनी ही गहरी बात छिपी हो उसमें। अब कबीर ने कहा – “कबिरा खड़ा बाजार में सबकी माँगे खैर/ न काहू से दोस्ती न काहू से बैर।” ये लोक की भाषा में कहा, आज तक जिन्दा है। लाखों लोग आज भी इसे कोट करते हैं या रसखान जब अपने पद में कहते हैं – “काग के भाग बड़े सजनी, हरि हाथ सों लै गयो माखन रोटी।”
अब इसमें क्या ऐसी बात है जो समझ में नहीं आ रही। ये उन्होंने आसान भाषा में कहा है। यही सबसे मुश्किल है। आसान भाषा में, लोक की भाषा में कहना सबसे कठिन है। आसान कहना, आसान नहीं होता। आसान कहने के लिए आपको आसान होना पड़ता है। एक यात्रा से होकर गुज़रना पड़ता है। आप समय के साथ यात्रा करते हैं। लेकिन जब आप अपनी रफ्तार से आगे निकलते हैं तो बहुत कुछ छूट जाता है। इन बड़े नामों ने तपस्या की है। एक पूरी साधना है। जब आप तपस्या करते हैं तब जीवन को सरल तरीके से समझने का दर्शन मिलता है। तब आप बड़ी बात, आसाधारण बात सरल भाषा में कहते हैं।
प्रश्न : हिन्दी मेें विदेशी भाषा के शब्दों का प्रयोग बढ़ा है। हिन्दी के शुद्धिकरण और सरलीकरण को लेकर एक अन्तर्द्वन्द्व विद्वानों में है। हिन्दी को दूसरी भाषाओं के प्रभाव से बचाना कितना जरूरी है?
उत्तर : ऑक्सफोर्ड खुद को रोज अपटेड करती है। आप अगर ढूंढने जाएंगे तो उसमें लोटा, डकैती, लूट, धोती ये सब मिलेंगे। अब अंग्रेजी के अखबारों में ये शब्द दिखेंगे। मैं ये कहता हूँ कि आप जिस भाषा में सोचते हैं…सपने देखते हैं वो आपकी भाषा है। आपके एकांत में जो भाषा आपका साथ निभाती है वो आपकी है.. आप गहरी नींद से किसी के जगाने पर जो प्रतिक्रिया देंगे वो आपकी भाषा है। आपकी अपनी भाषा में न जाने कितनी भाषा के शब्द हैं। आप किसी एक भाषा के सहारे न तो जिन्दगी जी सकते हैं, न आप अपना ज्ञान बढ़ा सकते हैं। भाषा ठहरने की चीज नहीं है। वो ठहर जाएगी तो बर्बाद हो जाएगी। जो भाषाएं ठहर गईं वो खत्म हो गईं या हो रही हैं। जो भाषा उदार हैं वहीं जिन्दा रहती हैं। जिन बड़े नामों ने दूसरी भाषा के शब्दों का शायरी में प्रयोग किया उसमें ध्यान रखा कि वह स्वाभाविक रूप से आए शब्द हों। उन्होंने किसी भाषा के शब्द को विशेष रूप से शायरी में ठूँसा नहीं है। बशीर बद्र साहब का एक शेर देखें –
वो जाफरानी पुलोवर उसी का हिस्सा है
जो कोई दूसरा पहने तो दूसरा ही लगे
ये पुलोवर शब्द किस भाषा का है। उन्हीं का एक शेर और देखिए :-
कोई फूल धूप की पत्तियों में हरे रिबन से बँधा हुआ
वो ग़ज़ल का लहजा नया नया न कहा हुआ न सुना हुआ
ये रिबन किस भाषा का शब्द है। सवाल ये है कि आपने दूसरी भाषा का शब्द कैसे प्रयोग किया है। अगर वह शब्द जिस प्रक्रिया से हमारी भाषा मेें आया है उसी तरह से प्रयोग किया गया है तो अच्छा लगता है।
प्रश्न : आप हिन्दी किसे मानते हैं। उसके शुद्धिकरण की जो बहस चलती है वो कितनी व्यवहारिक है?
उत्तर : मेरे लिए हिन्दी वही है जिस भाषा में मैं आपसे बात कर रहा हूँ। जिस भाषा में मैं खुद को जीता हूँ। जिस भाषा में मैं सपने देखता हूँ। जिसमें मैं पत्रिकाएं पढ़ता हूँ। जिसमें फिल्में देखता हूँ। हिन्दी को आप एक विशेष साँचे में, खाँचे में बांधकर नहीं रख सकते। ये एक बहती हुई भाषा है, उदार भाषा है, ये जिन्दा जुबान है। इसमें अरबी भी है, तुर्की भी है, फारसी भी है, संस्कृत भी है, भोजपुरी है, अवधी है बुंदेली है.. सब है, और सब अब हिन्दी ही है। लेकिन उतना ही जो स्वभाव से, प्रक्रिया को, यात्रा को तय करके आया है आप किसी शब्दकोश से एक शब्द लाकर यहाँ प्रयोग करें और उसे हिन्दी बताएं तो वह हिन्दी नहीं है।
मैंने आपको ऑक्सफोर्ड की जो मिसाल दी उसके पीछे यही कारण है कि वह किसी भाषा के किसी शब्द को अछूत नहीं मानते। उन्होंने जरूरत के हिसाब से सब शब्द रख लिए हैं। अगर आप उनका शब्द नहीं रखना चाहते तो समस्या आपकी है। भाषा की जरूरत अलग है, शुद्धिकरण अलग है। आप लोक के लिए शुद्ध भाषा को अनिवार्य नहीं कर सकते।
प्रश्न : उत्तर भारतीय और दक्षिण भारतीय भाषाओं में अन्तःसम्बन्ध किस तरह सम्भव है? भाषाई तौर पर हम एक कैसे हो सकते हैं?
उत्तर : आपको क्या लगता है कि भारतीय भाषाओं के बीच अभी अन्तःसम्बन्ध नहीं है? आप चेन्नई स्टेशन पर उतरिए और अपनी भाषा में ऑटो वाले से कहिए कि फलाँ जगह जाना है। आपको तमिल में कहने की जरूरत नहीं है। ऑटो वाले की जरूरत है रोजी, वो आपको लेकर जाएगा। ऐसे ही जहाँ आपको अपनी जरूरत लगेगी आप उनकी भाषा का कोई शब्द सीखकर उसका प्रयोग करेंगे ताकि आपकी बात वो समझ सकें और जरूरत पूरी हो सके। भाषा ऐसे ही बनती हैं, विकास करती हैं। शब्द एक भाषा से दूसरी भाषा में आते हैं, जाते हैं। जरूरतें भाषा को बनाती हैं। उनमें अन्तःसम्बन्ध बनाती है। राहुल सांकृत्यायन जब पूरी दुनिया घूमते हैं तो वो कहते हैं कि जब आप संस्कृतियों से मिलते हैं तो आप नया कुछ दे रहे होते हैं, नया कुछ ले रहे होते हैं। कुछ नया रच रहे होते हैं, भाषाओं में ऐसे ही तो अन्तःसम्बन्ध बनने लगता है। भाषा स्वाभाविक रूप से ही आती है। ऑटो वाला हिन्दी में आपको समझाने के लिए, बात करने के लिए कुछ हिन्दी में बोल पा रहा है तो आप उसकी हिन्दी की मजाक बनाएं उससे बेहतर है उसके पीछे उसके प्रयास को समझें। उसे सही करने में न लगें। भाषाएं मिलती रहनी चाहिएं। संघर्ष की जगह-उनमें मेलजोल हो। आप उन्हें सही करेंगे तो वो भी कहेंगे आप उनकी तरह तमिल, मराठी बोलकर दिखाएं।
प्रश्न : अब रोमन लिपि का प्रभाव बढ रहा है। हिन्दी पर और अन्य भारतीय भाषाओं की लिपियों पर इसे संकट मानते हैं क्या?
उत्तर : लिपि हर भाषा की आत्मा है। वो उसकी मूल पहचान है। हमारी देवनागरी के साथ बहुत अच्छी बात है कि जो बोलते हैं वही लिखते हैं, जो लिखते हैं वहीं बोलते हैं। दूसरी भाषाओं में अपवाद हैं उसे छोड़ दीजिए। लेकिन जैसे सिनेमा है, आप हिन्दी सिनेमा से जब पैसा कमा रहे हैं तो आप उसकी लिपि को अछूत क्यों मानते हैं। उसे सीखने-समझने में हर्ज क्या है, जबकि आप इसी पट्टी से आते हैं। देवनागरी सीखना कोई इतना कठिन भी नहीं है कि हिन्दी पढ़ने के लिए आप रोमन का सहारा लें।
प्रश्न : सोशल मीडिया पर कविता और शायरी कहने और सुनने का चलन बढ़ा है। ऐसे में कविता के मंचों का आप क्या भविष्य देखते हैं?
उत्तर : कविता मंच तक ही नहीं है, कविता जीवन में है। मंच उसका एक छोटा हिस्सा है। जैसे हमारा साँस लेना जरूरी है, ऐसे ही हमारे जीवन में कलाओं का होना जरूरी है, ऐसे ही हमारे जीवन में कविता का होना जरूरी है। सवाल यह है कि उसके साथ ट्रीटमेन्ट कैसा हो रहा, व्यवहार क्या हो रहा है ये हमें तय करना है। कविता तो कहीं नहीं जाएगी, वो चली गई तो जीवन नीरस हो जाएगा। मेरा विश्वास है कि जैसे प्रलय के बाद भी प्रकृति में जीवन कहीं न कहीं बचा ही रहता है उसी तरह कैसी भी परिस्थितियाँ हों अच्छी कविता हमेशा बची रहेगी।
(बतौर सह सम्पादक अविलोम पत्रिका के दिसम्बर 2022 के लिए लिया गया साक्षात्कार)