कश, कशिश और कश्मकश का शायर : रघुपति सहाय ‘फ़िराक’
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- अभिनव 'अभिन्न'
- August 28, 2019
- रू-ब-रू संस्मरण
ये माना ज़िंदगी है चार दिन की
बहुत होते हैं लेकिन चार दिन भी
इस शेर में क्या नहीं है, तजुर्बा, हौसला, ताकीद, तंज, सब कुछ। और ये सब कुछ जिसके शेरों में सिमटा हो, उस शख़्स को दुनिया जानती है रघुपति सहाय ‘फ़िराक’ के नाम से।
‘फ़िराक’, ये नाम लेते ही आप के ज़हन में सबसे पहली तस्वीर उभरती है एक लंबे-चौड़े चेहरे और बड़ी आंखों वाले शख़्स की, जिसके बाएं हाथ ही उंगलियों के बीच एक सिगरेट दबी होगी जो होठों तक पहुंचेगी, एक कश लगेगा, हवा में छल्ले बनाता हुआ धुआं उड़ेगा और ज़िंदगी की कश्मकश को समेटे कशिश लिए एक शेर उस ज़बान से निकलेगा, जिसमें डूबने के लिए हम और आप मजबूर हो जाएंगे। इन शेरों को कहलाने वाला तो ख़ुदा ही है, लेकिन इनका मालिक होता है ‘फ़िराक’ गोरखपुरी।
आज 28 अगस्त 2020 को फ़िराक साहब की 124वीं सालगिरह है। आज से उनकी 125वीं सालगिरह का जश्न शुरू करने का मौका आता है। हिंदुस्तान की उर्दू शायरी में ग़ालिब, मीर, मुसहफी के बाद कोई शायर सबसे ज्यादा पढ़ा जाता है तो वह हैं ‘फ़िराक’ गोरखपुरी। उन्हीं के शेर के हवाले से –
‘गालिब’ ओ ‘मीर’ ‘मुसहफी’
हम भी ‘फ़िराक’ कम नहीं
भारत में उर्दू को हिंदी की बोली न मानकर मुसलमानों की भाषा के तौर पर स्थापित किया गया। इसमें जितना षड्यंत्र हिंदू खेमें के कट्टरवादियों का था, उतना ही हाथ मुस्लिम कट्टवादियों का भी है। लेकिन, जिगर, फ़िराक, शहरयार, निदा फाज़ली, वसीम बरेलवी जैसे लोगों ने वो काम किया जिसने उर्दू और हिंदी के बीच के फासले को खत्म कर दिया। अपने दौर में जिस बग़ावत के लिए ग़ालिब जाने जाते थे, उसी तौर के लिए फ़िराक को याद किया जाता है। प्रयोग और संप्रेषणियता के जिस सामंजस्य के साथ फ़िराक अपनी बात कहते हैं, उस अंदाज़ को अपनाने वाले दीगर शायर ही हुए हैं।
फ़िराक साहब की ज़िदंगी के बारे में बताने, उनके किस्सों को सुनाने के लिए मैं यहां कुछ नहीं लिख रहा हूं। इसके लिए मुझसे पहले न जाने कितने लोग लिख चुके हैं, और न जाने कितने उन्हें जानते भी होंगे। लेकिन हां, मुझ जैसी नई नस्ल के लिखने-पढ़ने वालों के लिए फ़िराक क्या हैं ये पढ़ने के लिए आपको इस सिलसिले को आगे बढ़ाना होगा।
फ़िराक उस नज़रिये के शायर हैं जो उनके दौर में कहना, सोचना भी मुमकिन नहीं था। अपने अलग अंदाज़ के चलते फ़िराक को अपने दौर में स्थापित होने के लिए वक़्त तो लगा, लेकिन जब उन्होंने ट्रैक पकड़ा तो फिर उन्हें पीछे कर पाना उस दौर के शायरों के लिए मुश्किल था। फ़िराक जाने जाते हैं अपनी वाक् पटुता के लिए। उससे भी ज्यादा याद किए जाते हैं अपने सटायर के लिए। और उससे भी कहीं ज्यादा चर्चित हैं वो अपनी शराब और गालियों के लिए। फ़िराक का कैनवास छोटा नहीं है, वो एक ही समय में बहुत सादा शब्दों के साथ बहुत गहरी बातें कह देते थे। ये उनकी बुद्धिमता का परिचायक था। उनके ज़बान से निकली हर बात के कई मानी निकाले जा सकते थे। एक छोटा सा किस्सा सुनाता हूं। ये किस्सा मुझे वसीम बरेलवी जी ने सुनाया था।
पंजाब के लुधियाना में एक मुशायरे में फ़िराक साहब को बतौर सदर हिस्सा लेना था। जिस ट्रेन से वह पहुंच रहे थे, उसी में वसीम जी भी सवार थे। उस वक़्त वसीम जी की उम्र कोई 30 बरस रही होगी। वो उन दिनों स्थापित हो रहे थे और फ़िराक गोरखपुरी एक स्थापित शख़्सियत थी। लुधियाना के कलक्टर फ़िराक साहब को स्टेशन पर लेने आए।
वसीम जी ट्रेन से उतरे तो उन्हें भी साथ लेकर वो अपने घर पहुंचे। घर पर उनका पूरा परिवार था। फ़िराक साहब के चाहने वालों को जैसे ही पता चला तो वह उनसे मिलने पहुंचने लगे। कलक्टर साहब के बीवी-बच्चे भी घर में ही थे। फ़िराक साहब के किस्से और गालियां जारी थीं। गालियों के बिना उनके लतीफ़े पूरे नहीं थे। वसीम जी थोड़ा असहज थे।
वो सोच रहे थे कि घर में बच्चे हैं, वो हमारे बारे में क्या सोच रहे होंगे। इतनी ही देर में फ़िराक साहब ने उनसे पूछा –
- क्यों मिस्टर, आपको तो कोई इंटरेस्ट नहीं आ रहा होगा?
- वसीम जी ने कहा – नहीं जनाब, मैं तो आपको ही सुन रहा हूं।
- वो बोले – अरे नहीं, आप कहां हम जैसों की बातों को सुनेंगे। आप तो डिग्री काॅलेज में टीचर हैं।
- वसीम जी बोले, अरे नहीं जी, मैं आपको ही सुन रहा था।
- फ़िराक साहब बोले – मियां, मैं आपको देख रहा हूं, जिन्हें आप गाली समझकर नाक-भौंह सिकोड़ रहे हैं, ध्यान रखना, जिस ज़बान में मुंह भरके देने को गाली नहीं होतीं, वो ज़बानें भी जिंदा नहीं होतीं, मर जाया करती हैं।
वसीम साहब कहते हैं कि उस वक़्त मुझे उनकी बात समझ नहीं आई। लेकिन उम्र और तजुर्बे के साथ, भाषा विज्ञान पढ़ने के साथ मुझे समझ आया कि भाषा वही जिंदा रहती है जिसमें आप प्यार और गुस्सा जी भरके ज़ाहिर कर सकें।
आज आप आप बोलचाल से लेकर बाॅलीवुड तक जिस भोजपुरी, बनारसी, संभली, पंजाबी भाषा को गालियों के अंदाज़ में सुनते हैं, उनको जिंदा और लोकप्रिय रखने के पीछे उनमें प्रयोग की जाने वाली गालियों का योगदान कम नहीं। यू-ट्यूब पर दिल्लीवाला होने का परिचय भी जिस वाक्य में दिया जाता है उसे उसकी गाली के अंदाज़ ने ही प्रसिद्ध किया, जो बरसों से दिल्ली की गलियों में गूंजता रहा है।
फ़िराक हर बात को दर्शन के साथ कहते थे। एक और किस्सा याद आता है। ये भी वसीम जी ने ही सुनाया था। दोनों लखनऊ के एक मुशायरे में थे। कैफ़ी आज़मी मंच पर थे, फ़िराक साहब उसकी सदारत कर रहे थे। वसीम साहब भी मौजूद थे। उन दिनों लखनऊ के एक बहुत मशहूर शायर हुआ करते थे। नाम नहीं लिखूंगा, लेकिन वो अपनी तरन्नुम के लिए बहुत पसंद किए जाते थे। लेकिन उनके शेरों में तकनीकी गड़बड़ियां भी कम नहीं होती थीं। फ़िराक शेर में तकनीक ख़ामियों को पसंद नहीं करते थे। वो उनका कलाम बहुत ध्यान से सुन रहे थे। उनकी कमियों को भी जान रहे थे, लेकिन दाद को भी नज़रअंदाज़ नहीं कर पा रहे थे। उन्हें इस गंभीरता से सुनता देख कैफ़ी साहब ने पूछा –
- क्या बात फ़िराक साहब, बड़ी बारीकी से सुन रहे हैं, बहुत अच्छा शेर कह रहे हैं जनाब।
- फ़िराक साहब ने अपने अंदाज़ में कहा – हां भाई, सुन तो रहा हूं, देख भी रहा हूं। अगला डालता है कबूतर और निकलाता है फाख़्ता।
उनका ये जुमला था और शायरों का पूरा मजमा जोर से ठहाका लगाने लाग, शायर जनाब समझ नहीं पाए कि मोहब्बत की शायरी पर ये सब खिलखिला क्यों रहे हैं।
ये फ़िराक गोरखपुरी का अंदाज़ था। वो ज़िंदगी भर अपने इसी अंदाज़ और ज़िंदादिली के लिए चाहनेे वालों के बीच जाने गए। इस दुनिया से जाने के बाद भी उन्हें जितना उनके शेरों के लिए याद किया जाता है, उससे कहीं ज्यादा उनके किस्सों के लिए।
फ़िराक गोरखपुरी उस शख़्स का नाम है जो ये कहने की हिम्मत रखता था कि पंडित जवाहरलाल नेहरू आधी अंग्रेजी जानता है। फ़िराक वो शख्स है जिनके दोहे हौसले का दूसरा नाम हैं –
यही जगत की रीत है, यही जगत की नीत
मन के हारे हार है, मन के जीते जीत
या
नया घाव है प्रेम का जो चमके दिन-रात
होनहार बिरवान के चिकने-चिकने पात
फ़िराक अपने दौर के सुपरस्टार शायर थे। ऐसे शायर जिन्हें सुनने के लिए दिलीप कुमार, मीना कुमारी, जाॅनी वाॅकर, राजकुमार, देवानंद जैसी हस्तियां भी सामने कतार में बैठती थीं। मुंबई के एक मुशायरे में फिराक साहब मंच पर कुछ उनींदी स्थिति में थे। दिलीप कुमार साहब उनके पास आए और उन्हें नमस्ते की।
फ़िराक साहब बोले, कौन हो भाई?
दिलीप साहब ने उत्तर दिया – मैं, दिलीप कुमार।
फ़िराक साहब बोले – कौन दिलीप कुमार।
दिलीप साहब चुप थे, फिर फ़िराक साहब बोले – अच्छा सिनेमा वाले, दिलीप कुमार। आईए जनाब, बैठिए।
ये अंदाज़ फ़िराक गोरखपुरी का था। उन्हें खुद को लेकर आत्ममुग्धता थी, लेकिन वो यूं ही तो नहीं जन्मी होगी, वो अपनी हैसियत और शख़्सियत दोनों से वाबस्ता होंगे, तभी उन्होंने कहा –
आने वाली नस्लें तुम पर रश्क करेंगी हम असरों
जब भी उनको ध्यान आएगा, तुमने फ़िराक को देखा है
उनके कितने शेर याद किए जाएं जो जिंदगी के हर पहलु को समेटे हुए हैं –
ज़िंदगी में जो इक कमी सी है
ये जरा सी कमी बहुत है मियाँ
जो उलझी थी कभी आदम के हाथों
वो गुत्थी आज तक सुलझा रहा हूँ
जब्त कीजे तो दिल है अँगारा
और अगर रोइए तो पानी है
इसी खंडर में कहीं कुछ दिए हैं टूटे हुए
इन्हीं से काम चलाओ बड़ी उदास है रात
सुनते हैं इश्क नाम के गुजरे हैं इक बुजुर्ग
हम लोग भी फक़ीर इसी सिलसिले के हैं
किसी का यूँ तो हुआ कौन उम्र भर फिर भी
ये हुस्न ओ इश्क़ तो धोका है सब मगर फिर भी
ज़िंदगी क्या है आज इसे ऐ दोस्त
सोच लें और उदास हो जाएँ
मौत का भी इलाज हो शायद
ज़िंदगी का कोई इलाज नहीं
बहुत पहले से उन क़दमों की आहट जान लेते हैं
तुझे ऐ जिंदगी हम दूर से पहचान लेते हैं
इस दौर में जब आदमी-आदमी से कटता जा रहा है, तब फिराक के सहारे हम इंसानियत को बचाने की कोशिश कर सकते हैं –
देवताओं का ख़ुदा से होगा काम
आदमी को आदमी दरकार है
अगर बदल न दिया आदमी ने दुनिया को
तो जान लो कि यहाँ आदमी की ख़ैर नहीं
ये साल बहुत दुखदायी है। इसने हमसे बहुत खास और अज़ीज़ छीन लिए। बहुत रुलाया है। बहुत परेशान भी किया है। अपनी सेहत को लेकर फिक्रमंद भी बनाया हैं। मुझ जैसे पत्रकार तो इस दौर में भी सेहत पर ध्यान देने की सोच नहीं सकते। बस नौकरी को ज्यादा वक़्त देने के चक्कर में ज़िंदगी और सेहत से वक़्त चुरा रहे हैं। ऐसे में हमारे लिए भी फ़िराक ही एक हिम्मत भी हैं –
पाल ले इक रोग नादां ज़िंदगी के वास्ते
सिर्फ सेहत के सहारे ज़िंदगी कटती नहीं
न जाने क्यों कोरोना जैसे संकट के काल में ये शेर किसी पिटारे से बाहर नहीं आया। फ़िराक साहब ने हर रेंज की शायरी को किया और जीया है। अंग्रेजी के शानदार जानकार और उर्दू के बेशकीमती इस शायर के इर्द-गिर्द जैसे विचार परिक्रमा करते हों कि हमें उठाकर अपने किसी मिसरे में कहीं जगह दे दो।
शुरूआती दौर में जब शायरी को पढ़, समझ रहा था जब मैं इसी ग़फ़लत में रहा कि फ़िराक मुस्लिम हैं, कई दिनों बाद पता चला कि ये तो साझा तहजीब की तस्वीर हैं, हिंदुस्तान की असल तहज़ीब जो ये जवाब देती है कि भाषा किसी संप्रदाय या खेमे का हिस्सा नहीं। ज़बान आपके अदब और आदाब का हिस्सा है। रघुपति सहाय उर्दू के उन शायरों में से एक हैं जो सीमाओं से परे हैं, जिसने हर तरह की शायरी की, जिसने दोहे कहे, जिसने रूबाई कहीं, जिसने नज़्म कहीं, जिसने नस्र लिखा, जिसने लतीफे दिये, जिसने गालियों को दर्शन दिया, जिसने ज़िंदगी को नया एहसास दिया, जिसने हमारी पीढ़ी को नज़रिया दिया और उस हर वक़्त के लिए अनमोल अशआर दिए, जिनके सहारे हम अपनी खुशी, अपना ग़म, अपना इश्क़, अपना दर्द, अपनी ख़लिश, अपना हर जज़्बात बयान कर सकते हैं।
मेरी खुशकिस्मती है कि मेरे जन्म का दिन भी फ़िराक साहब के जन्मदिन के साथ ही है। कभी-कभी लगता है कि मेरे अंदर बग़ावत और नया नज़रिया उन्हीं की यौमे पैदायीश के असर का नतीजा तो नहीं।
कुछ क़फ़स की तीलियों से छन रहा है नूर सा
कुछ फ़ज़ा कुछ हसरत-ए-परवाज़ की बातें करो
आपको इस छोटी सी कलम की ओर से बहुत श्रद्धा सुमन फ़िराक साहब।